रविवार, 29 मार्च 2009

खँडहर


इस जर्जर वीरान खँडहर से कुछ
आवाजें निकलतीं हैं, निकलकर
सघन नीरवता में गुम हो जातीं हैं।
कोई भी नहीं है, जो इसे सुन सके, महसूस कर सके
और इस खँडहर को उसकी पहचान दिला सके
क्या कोई है?


प्राचीरें टूट-टूट कर गिर रहीं हैं
भव्यता की सीमा का परिहास उड़ाती हुईं
कृतियाँ हो रही हैं मलिन, धूमिल
कोई भी नही है जो इसे संवार सके
क्या कोई है?


कल तक जहाँ चहकते थे खग-वृन्द
आज वहां मरघट सा छाया है
बढ गयी है इसकी मौलिक कुरूपता भी
नयी-नयी झाड़ियों का साया है।
कोई नहीं है जो इसे सुवासित कर सके
क्या कोई है?


कभी यह खँडहर इठलाता था
अपनी अभूतपूर्व सुन्दरता दिखलाता था
पर आज खुद पर ही शर्मिंदा है
किसी तरह टूटती ईंटों पर जिन्दा है


किसी दिवस इसे भी गिर जाना है
अंततः मिट्टी में मिल जाना है
क्या इसका अस्तित्व ऐसे ही विलीन हो जायेगा
या कभी कोई इसे बचाने भी आयेगा
पर कौन? कब? शायद पता नहीं.

1 टिप्पणी:

chandan ने कहा…

प्राचीन इमारतों के लिए कुछ किया जाना बेहद ही मुश्किल
है. अगर कुछ किया जा सकता है तो बस हम उन्हें याद कर सकते हैं,
क्योंकि हमारे पास कुछ करने को होता नहीं, सिवाय याद करने के .............