शनिवार, 28 मार्च 2009

दर्द

पर दुःख से व्यथित होकर
बहते थे कभी मेरे भी नीर
सूख चुके अश्रु नयनों के
शुष्क पड़े हैं दोनों तीर।
कोई कहता निष्ठुर हो गया
कोई कहता निर्मोही
कंटक सी चुभती ये बातें
करतीं अंतर्मन को अधीर।

हृदय में अंकित शोक-संतापों को
कौन किसे अब समझाए
बिन अश्रुजल के वो निरीह प्राणी हैं
जो सहन करता है सबकुछ मौन,गंभीर॥

4 टिप्‍पणियां:

Deepak "बेदिल" ने कहा…

wah kya baat hai ..sach me neer ki koi gati nahi ...naa hi koi paka smaey hai.jai ho

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

wah! bahut hee jandar, narayan narayan

अभिषेक मिश्र ने कहा…

अच्छी रचना, स्वागत ब्लॉग परिवार में.

I M POWER vartika ..... burning invisible flame ने कहा…

ati uttam
ankhon ke kor se ashru dhara yun avichalit bahti rahi apki rachnayi jad dard bayan kar rahi thi

dhnyvaad itni khubsurat rachnaoon ke liye

apki dost ........
vartika