शनिवार, 13 मार्च 2010

परजीवी


रात के सन्नाटे में
नींद खुल जाती है अचानक से
वे आवाजें फिर से मेरे कानों के
परदे से टकराने लगतीं हैं।
दूर कहीं जंगलों, सड़कों के फुटपाथों
असभ्यता के कथित गंदे नालों से उठतीं आवाजें
निष्प्राण,निरीह किन्तु दर्द से बिलबिलाती हुई
अधनंगें, अधपेटों की अधखुली आवाजें ।।

घबराकर बंद कर लेता हूँ मैं
घर के सभी दरवाजें और खिड़कियाँ
इसलिए नहीं कि मैं डरपोक हूँ
इसलिए क्योंकि मेरे 'होने पर' ही
प्रश्नचिन्ह उठाती हैं ये आवाजें
क्योंकि अभी भी मेरे टेबुल पर
पड़ा है सिगरेट का एक पूरा डिब्बा
जिसे भूखा नहीं पीता।
बताता है जो कि मेरा पेट
और घर दोनों भरें हैं
लेकिन खाली है मेरा ह्रदय
मै बस मांस का एक लोथ हूँ
एक जंगली कुत्ता
जो 'शेर' कि तरह सीधे शिकार नहीं
करता 'जानवरों' का
बस पलता रहता है उनके जूठन पर।

मीडिया में पत्रकारों की दशा

मीडिया का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है और मीडिया मालिकों की आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हुई है। पर मीडिया में काम करने वालों पत्रकारों की आमदनी में कोई भी बढ़ोत्तरी का कोई भी पैमाना नही है। श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 पत्रकारों के लिए बनाया गया जिसमें बदलते समय के साथ कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया। कोई भी मीडिया संस्थान चाहे प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन कोई भी हो, युवाओं को सपनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। सभी मीडिया संस्थानों में इंटरर्नशिप के नाम पर महीनों काम कराया जा रहा है। सबसे पहले रेडियो सिटी के विषय में आप जानिए हर महीने तीन लोगों को तीन महीनें की इंटरर्नशिप पर रखता है। मजदूरो से भी बुरी तरह काम कराया जाता है क्योंकि उन्हें इन तीन महीनो में एक भी रूप्या नहीं दिया जाता है जबकि मजदूर कम से कम अपरी दिहाड़ी तो पा जाते हैं। चैनल के लोगों को कहना है कि हम थोड़ी न बुलाते हैं लोग खुद चलकर आते हैं। मतलब साफ है कि तीन महीने जमकर कर काम कराओ और फिर तीन महीने बाद नए इंटरर्न ले लो। एक इंगलिश न्यूज चैनल न्यूज एक्स लोगो को पहले इंटरर्न के नाम पर लेता है दो महीने काम लेता है और फिर बाहर का रास्ता दिखा देता है। मीडिया की पढ़ाई करने वाले को साफ बता देना चाहिए कि यह एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम है। पढ़ाने वाले को साफ तस्वीर रखनी चाहिए। इसी बात को लेकर मेरी कई बार हमारे पूर्व शिक्षकों से काफी बात हो चुकी है। बात स्नातक के स्तर पर पत्रकारिता को लेकर थी हमनें साफ कह दिया कि स्नातक में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद कम से कम ये तो समझ जाता है कि वो खुद पत्रकारिता कर पाएगा या नहीं। बल्कि जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और पोस्ट गेएजुएट स्तर पर ही पत्रकारिता करने के बाद अपना सिर पीटते नजर आते हैं। एक सुनिश्चित करियर लोगों के लिए दूसरी राह भी खोलता है पर यहाँ एक करियर ही सुनिश्चित नजर नहीं आता है। कुछ समय पहले लोगों को मीडिया से आर्थिक मंदी के नाम पर जमकर निकाला गया। यही नहीं समूह के विस्तार के नाम पर सिर्फ़ 150 लोगों को सीएनबीसी आवाज से निकाल दिया गया। एक काम ये भी तो किया जा सकता था कि उनकी सैलरी को घटा दिया जाता। कम से कम सड़क पर आने से पहले अपने और अपने परिवार के लिए कुछ तो इंतजाम कर लेते। आपका परिवार आप पर निर्भर रहता है और आप मीडिया मालिकों पर जो पता नहीं कब लात मार कर आप को निकाल दें। आप अंग्रेजी और हिंदी के मीडिया में भी ये अंतर देख सकते हैं। लाभ सबसे ज्यादा हिंदी के मालिक कमा रहे हैं और वेतन के मामले में अंग्रेजी अखबारों से मीलों दूर दिखते हैं। काम करने की आजादी भी अंग्रेजी वाले दे रहे हैं। गलती हमसे ही कही हुई है कि हम क्यों नहीं समझ पाए कि क्या कुछ हमारे साथ हो रहा है । कट, कापी और पेस्ट की दुनिया अब सिमटी हुई तो नजर आती है पर हर सख्स परेशान सा क्यों है इसको समझना आसान होकर भी मुश्किल होता जा रहा है। देश के बाकी तीन खम्भों की हर प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है आखिर चोथे खम्बे के अर्थात क्यों पत्रकारिता में पत्रकारों की जॉब के लिए कोई नियम कानून क्यों नही बनाये गए हैं।

बुधवार, 3 मार्च 2010

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

धँधे की अँधी दौर में घायल होता ‘लोकतंत्र’ का ‘लोक’!

पुणे में हुए धमाके ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया है जिसमें एक क्षणिक बदलाव शायद मीडिया के धँधे में भी दिखाई पड़ा, तभी तो आम तौर पर बड़बोलेपन की आदत के विपरीत थोड़ा संतुलित व्यवहार दिखाया गया। इस बदलाव का कारण शायद मुंबई धमाकों की गूँज का वह भूत है जो मीडिया का पीछा अभी तक कर रहा है। 2008 के मुंबई धमाकों की अपनी तथाकथित संघर्षशील रिपोर्टिंग पर हुई जग-हँसाई ने शायद इस बार भावनओं के ज्वार को फूटकर बहने से रोक लिया हो मगर आदत तो आदत होती है, छूटेगी कैसे?
अतिश्योक्ति में हर बात कहने के कीड़े ने मीडिया के धँधे को इतना प्रभावित कर दिया है कि गाहे-बगाहे इसका प्रदर्शन होना लाजमी हो ही जाता है! इस साल की शुरूआत को ही देख लीजिए, पूरी जनवरी वही चेहरा दिखता रहा है जिसके लिए वो विख्यात(कुख्यात) है। बात चाहे भाषा के मामले में फूटे तथाकथित देशप्रेम की हो या संवैधानिक अधिकारों की, मीडिया की बहसों ने इन्हें एक अलग ही रूप में ढ़ाल कर रख दिया। हर तरह की बातों में सिनेमाई नाटकीयता घुसेड़ने और सार्थक बहसों की जगह तू-तू मैं-मैं की शैली ने गंभीर से गंभीर मुददों को भी चलताऊ सा बना दिया है। संवेदनशील और देश से जुड़े सवालों को अब व्यक्तिगत बहसों में तब्दील कर दिया जाता है और इनमें घुसेड़ दिए जाते हैं कुछ पात्र जिन्हें सिनेमा की हीं तर्ज पर नायक और खलनायक की उपाधी भी दे दी जाती है। आलम ये है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नजरअंदाज किए जाने जैसे संवेदनशील मुददे, जिनसे दोनों देशों के बीच खटास और बढ़ सकती है, को खान और ठाकरे के वर्चस्व की लड़ाई तक हीं सीमित कर दिया गया। ऐसा महसूस हुआ मानो इन दोनों को देश का ढ़ेकेदार समझ बैठे हैं हमारे मीडियामानुष! एक चैनल ने तो सबसे आगे निकलने का होड़ में देश के नाम शाहरूख खान का संदेश भी जारी कर दिया जिसके तुरंत बाद ही शुरू हो गई वही पुरानी भेड़चाल!
जिस धंधे में बुँदेलखंड के विवश और लाचार लोगों की कहानी सिर्फ राहुल गाँधी और मायावती के बीच का टकराव बनकर रह जाती हो उससे ज्यादा उम्मीद करना भी तो एक तरह की नाइन्साफी ही है! खबरों के इस खेल में आज हर मुददा मुखौटों से हीं तो बिकता है चाहे वो महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद का दंश झेल रहे लोगों की ही कहानी क्यों ना हो, जब तक युवराज का दौरा ना दिखाया जाए तो खेल में मजा कहाँ रह जाएगा? अब इसे नाटकीयता हीं तो कहेंगे ना कि जब महँगाई को लेकर सारे देश की जनता त्राहिमाम कर रही हो तब मीडिया इसे प्रधानमंत्री और कृषि-मंत्री के बयानों तक सीमित कर देता है। कुछ हिन्दी के चैनलों ने तो खुला खेल फरूक्खाबादी ही बना डाला जब मुलायम सिंह और अमर सिंह के मामले को बेवजह इतनी तूल देकर पूरी तरह मसाला लगाकर पेश किया। धारावाहिक और सिनेमा की तर्ज पर बकायदा सीन और ऐक्ट जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ और अमर सिंह से तो गाने भी गवाए गए।
हिन्दी सिनेमा को गुरू द्रोण और खुद को एकलव्य मानने वाले मीडिया के लिए इन नाटकों को चलाने के दरमियान परेशानियाँ भी कम नहीं आती हैं। अब जैसे बीटी बैंगन के मामले को ही देख लें जहां मुखौटे के रूप में एक चेहरा तो पर्यटन मंत्री के रूप में मिल गया मगर प्रतिद्वंदी के रूप में बेचारे बैंगन को कैसे दिखाएँ टीवी पर! पात्र की इस कमी को पूरा किया गया अनाप-शनाप और ऊल-जलूल दावों और आंकड़ों की सहायता लेकर। गंभीर मुददों को दिखाने पर टीआरपी नहीं पाने वाले इस बेचारे से हमें पूरी हमदर्दी है मगर चुनाव जैसे मुददों पर भी यही रूख दिखाने की बात गले नहीं उतरती। 2009 के लोकसभा चुनावों में चुनाव लड़ने वालों में तो मुददों का अभाव समझ में आता है मगर आम आदमी को मीडिया से इतनी उम्मीद तो रहती ही है कि उसके मुददों को उठाएगा, लेकिन समाज के पहरेदारों ने बस खानापूर्ति कर अपने कर्तव्य से इतीश्री कर ली। कभी-कभी इस उद्योग की चिमनी से भी संवेदनशीलता का धुँआ उठता दिखाई पर जाता है मगर अपवाद तो हर जगह होते हैं, यहाँ भी हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ठेकेदार कहलाता है ये मीडिया उद्योग मगर वह स्वतंत्रता यहाँ काम करने वाले श्रमिकों को खुद मयस्सर नहीं है, शायद इसी वजह से इन लोगों ने आम जनता को भी इस अधिकार से महरूम रखना उचित समझा है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारन है कि दर्शक बेचारा कोई भी चैनल देख ले उसे शाहरूख खान से राहुल गाँधी तक ले जाया जाएगा और वापस शाहरूख पर ला कर हीं छोड़ा जाएगा। एक बात का खयाल जरूर रखा जाएगा कि दो चेहरों से लोग उब नहीं जाएँ, तभी तो बीच-बीच में आमिर खान और अमिताभ बच्चन के चेहरे भी देखने को मिल जाएँगे(आखिर चेहरा ही तो बिकता है ना!)। अब इन लोगों की गलती भी क्या है, इस धंधे में तो खुद पर हो रहे जुल्म की आवाज उठाने तक की मनाही है। दिन-रात अर्थव्यवस्था के पुनर्विकास के कलमे पढ़ने वाले इन बेचारों से कौन पूछे कि भाई जब इस तरह का विकास हो रहा है तो आप क्यों इससे अछूते रह जा रहे हैं? क्यूँ आपके सैकड़ों भाई-बँधुओं को मंदी के नाम पर बेघर किया गया और वेतन में भी मनमाने ढ़ंग से कटौतियाँ की गईं और किसी ने कोई सवाल उठाने की हिम्मत तक नहीं की? शायद इस क्षेत्र की अभिव्यक्ति भी उन्हीं चंद उद्योगपतियों की बपौती बन कर रह गई है। मुनाफा सबका बाप बन बैठा है और शेयर बाजार के ग्राफ से ही लोगों का भाग्य तय होने लगा है। सोने पर सुहागा तो तब लगता है जब यही लोग जनता को यह पाठ पढ़ाते नजर आते हैं कि मँदी तो भईया अमेरिका में आई है, भारत में तो बस आर्थिक सुस्ती का दौर चल रहा है!
अब सुस्ती है तो कुछ खुराक लेने से दूर भी होगी और हो भी रही है। एक पत्रिका की मुख्य खबर तो हमें यह समझाती भी है कि किस तरह हमारे ग्रामीण क्षेत्र के मजबूत आधार ने हमें मँदी के इस भँवर से सुरक्षित रखा और भारत पुनर्विकास के पथ पर अग्रसर भी हो चुका है। लेकिन विकास की यह धारा फिर से शहरी मीडिया तक हीं सीमित दिखाई दे रही है, वह मजबूत आधार तो फिर परदे से नदारद ही रहा। किसानों की इस अदृश्य विकास की कपोल कल्पनओं को मँच देने का बीड़ा उठाया है महाराष्ट्र के एक विकसित मीडिया घराने ने जिससे खुद सरकार के कुछ मंत्रियों का जुड़ाव है। अब यह लोग तो सच हीं बता रहे होंगे मगर खुद सरकार इन लोगों की बात से इत्तेफाक नहीं रखती है तभी तो सरकार कृषि क्षेत्र में नगण्य विकास की बातें बता रही है। जिस दिन इस तथाकथित विकास के किस्से सुनाए जा रहे थे उसी दिन राष्ट्रीय अपराध लेखा शाखा ने अपनी वेबसाईट पर 2008 में आत्महत्या करने करने वाले किसानों की सँख्या जारी की, जिसमें बताया गया कि वर्ष 2008 में 16,196 किसानों ने अपना जीवन समाप्त कर विकास की इस अवधारना पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वर्ष 1997 से लेकर अब तक 1,99,132 किसानों के आत्महत्या का आंकड़ा शायद यही कहता है कि इन नासमझ और बेचारे लोगों के कानों तक शायद विकास की ये मँगल गाथा पहुँच ही नहीं पाई थी।
पुनर्विकास की ये गाथाएँ विरोधाभास की स्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं क्योंकि सरकार द्वारा जारी किए गए ढ़ेर सारी रिपोर्टें विकास की इन लकीरों को लंबवत काट देते हैं। गरीबी-रेखा को परिभाषित करने वाली सुरेश तेंदुलकर समीति की रिपोर्ट, सँयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट और कई अन्य रिपोर्ट इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि सिर्फ वर्ष 2008-2009 के दौरान इस तथाकथित आर्थिक सुस्ती ने लगभग 3.5 करोड़ लोगों को गरीबी के अभिशाप से ग्रसित किया है। इतना ही नहीं 1991 से 2001 के दौरान करीब 80 लाख लोगों ने खेती से अपना मुँह मोड़ लिया है, यानि कि हर दिन लगभग 2000 लोग। मीडिया के लिए इसके बावजूद भी विकास तो हो ही रहा है क्योंकि कारपोरेट घराने और बड़े होते जा रहे हैं और अधिग्रहन और धँधे का विस्तार तो दिन दूनी रात चौगुनी गति से हो रहा है। सावन के अँधे की भूमिका को बड़ी बेखूबी से निभा रहा है ये धँधा जहाँ हर तरफ हरियाली ही दिखाई जा रही है। उद्योग और सिनेमा की चकाचौंध भरी दुनिया में भला फटे-पुराने कपड़े पहने लोगों की तस्वीर कैसे अपील कर सकती है?
एक दौर था जब टीवी पर क्रिकेट का भूत दिन-रात सवार रहता था मगर इस खेल के औद्योगिकरण(आईपीएल) ने यह समस्या भी हल कर डाली है, अब तो सिर्फ उद्योग और सिनेमा पर पूरी एकाग्रता से ध्यान लगाने की जरूरत है! धँधे के नफा-नुकसान से हीं तो मुददों की अहमियत तय की जाती है फिर चाहे इनसे लोकतंत्र के लोक का कोई सरोकार हो या ना हो। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के इस तथाकथित ठेकेदार के धँधे की अँधी दौर वाली यही प्रवृति खुद इसके और पूरे तंत्र को सड़ाने में योगदान दे रही है जिसकी गँध भविष्य में दिमाग की नसें तक फाड़ दे तो ताज्जुब नहीं!

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

किस ओर जा रहा है हमारा ’मीडिया’!

आजकल हर तरफ हो रही चर्चाओं में मीडिया एक ‘हॉट टॉपिक’ बना हुआ है। कॉलेजों की कैंटीन से लेकर चाय की गुमटियों तक ये चर्चा पीछा नहीं छोड़ती, और तो और खुद मीडिया भी यही करता नजर आ रहा है। समाचार चैनलों पर आसानी से कोई संपादक टीआरपी का रोना रोता नजर आ जाएगा तो कोई इसे ‘आम जनता की आवाज’ भी बता डालेगा, भले हीं सवा सौ करोड़ के देश में उस आम जनता का मतलब सिर्फ 10 से 12 हजार लोग हों। इसकी भी बड़ी सटीक वजह है इन लोगों के पास, इस तथाकथित आम जनता की आवाज में इतना दम जो है, क्योंकि ये लोग दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में जो रहते हैं। यही तो हमारी मीडिया के ‘टारगेट ऑडियंस’ भी हैं, और सिर्फ मीडिया ही क्यों हमारी सत्ता भी तो ऐसा हीं मान कर चलती आई है। दूर गावों और छोटे शहरों की उस बेनाम जनता से भला इन्हें क्या सरोकार, इसलिए तो जब भूख और गरीबी से बिलबिला कर ये बेनाम लोग सड़कों पर उतरते हैं तो बेचारा इलीट मीडिया उसे आवारा और जाहिल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
जिस समाज में सत्ता से लेकर विकास की हर प्रक्रिया का केंद्रीकरण हो रहा हो वहाँ की मीडिया भी इसी भेड़चाल में चले तो मुझे कोइ ताज्जुब नहीं होता मगर सौ चूहे खाकर बिल्ली का हज पे जाना अच्छा भी नहीं लगता। आज मीडिया की खबरों से लेकर उसके प्रचार-प्रसार और स्वामित्व तक का केंद्रीकरण होता जा रहा है। बाजार को हड़पने की इस अंधी दौड़ में मीडिया का धंधा करने वाले लोग भला क्यों पीछे रहें? मीडिया में काम तलाशने वाले लोगों की प्रवृति भी ऐसी हीं संकुचित होती दिखाई पड़ती है, अखबार हो या समाचार चैनल हर रिपोर्टर आज दिल्ली में ही काम करना चाहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मीडिया के उत्पाद यानि खबरों पर भी देखा जा सकता है। अखबारों से लेकर 24 घंटे के समाचार चैनलों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन महानगरों की होती हैं और इन जगहों की छोटी घटना भी मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। स्वाइन फ्लू से भले हीं दिल्ली में गिने-चुने लोग प्रभावित हुए हों मगर इसे महीने भर खबरों में रहने का ठेका मिल जाता है। दूसरी तरफ पूर्वी उत्तर-प्रदेश में जापानी इंसेफ्लेटाईटिस से हज़ारों बच्चों की मौत भी इसे खबर नहीं लगती। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारवाद के बाद से हीं मीडिया भी सार्वजनिक हित की जगह एक लाभकारी उद्योग कहलाने के पथ पर अग्रसर होता दिखाइ पड़ता है, जिसका एकमात्र मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना रह गया है।
थोक के भाव में उग रहे समाचार चैनलों में समाचार भी पिज़्ज़ा-बर्गर की तरह एक उत्पाद बनकर रह गया है जिसमें अधिक से अधिक मसाला लगाकर लोगों को चटकारे दिलाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। समाचारों में विविधता के नाम पर जो कचड़ा परोसा जाने लगा है उसे ना तो मनोरंजन कह सकते हैं और ना हीं सूचना। समाचारों की जगह उल-जलूल दिखाने की इस सनक नें कौन जानता है कहीं राखी सावंत के स्वयंवर की अगली कड़ी में उसके सुहाग-रात को भी दिखा दिया जाए! गंभीर से गंभीर मुद्दों का सतहीकरन कर उसे सड़कछाप बहस में तब्दील कर देना तो आजकल वैसे भी फैशन सा हो चुका है और शायद इतना काफी नहीं रहता इसलिए कभी-कभी अपराधबोध भी जग जाता है जिसमें अपनी मजबूरी दिखाने का सबसे अच्छा फंडा है टीआरपी और बाजार की दुहाई देना। इस बहाव में कुछ छोटे-बड़े लोग अच्छा काम करते हैं तो तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम’ वाले उन्हें ‘डायनासोर युग’ में पहुँचा हुआ घोषित करने सें जरा भी देर नहीं लगाते। ऐसा लगता है कि मीडिया की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ने का श्रेय उसी संस्कृति की देन है जो पूँजी की सत्ता को सर्वमान्य मानकर चलती है और जिसने उपभोकतावाद को प्रचारित-प्रसारित किया है। इसके कारन समाचार और उत्पाद के बीच की रेखा इतनी धुँधली होती गई है कि समाज में मीडिया की साख और मीडिया में समाज की समझ के बीच एक गहरी खाई पैदा हुइ है जिसमें मीडिया की वास्तविक छवि भी कहीं खो गई है।

रविवार, 17 जनवरी 2010

राजनीति में एक अध्याय का अंत


दशक के अंतिम साल कि सबसे दुखद घटना। माकपा के सबसे वरिष्ठ नेता ज्योति बसु नहीं रहे। इनके बारे में अभी कुछ लिखने का दिल नहीं कर रहा क्योंकि आंखे आंसुओं से भीगी हैं और दिल व्यथित। चर्चा अगली बार करेंगे।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हमारी व्यवस्था जिन्हें इडियट्स कहती है...


समय के साथ शब्दों के अर्थ बदलते हैं किसी का अर्थविस्तार तो किसी का अर्थसंकोच। आज कोई जब बुद्धिजीवी बोलता है तो एक ऐसी छवि बनती है जिसमें पर्याप्त जटिलता, कुटिलता तथा बने बनाए रास्तों पर चलने वाले मुसाफिर जैसे गुण हों। वहीं इडियट का अर्थविस्तार हो गया है। दरअसल यह अर्थविस्तार आश्चर्यचकित नहीं करता है क्योंकि हमारी व्यवस्था कुछ निर्धारित मानदंडो के आधार पर ही लोंगो को इडियट घोषित करती है। लेकिन ये मानदंड कितने विवेकशील हैं महत्वपूर्ण बात यह है।
जिसे हम इडियट कहते हैं उसमें एक किस्म का पागलपन होता है, चीजों को खारिज करने का माद्दा होता है। जिसे हम पागलपन कह रहे हैं वही व्यक्ति को रचनात्मक बनाता है और खारिज करने का माद्दा, मौलिक । यह रचनात्मकता और मौलिकता स्थापित मानदंडो को चुनौती देती है जिसे लोग डाइजेस्ट करने में असहज महसूस करते हैं। लोगों को लगता है कि यह बहक गया है और तमाम तरह की चाबुकें लगायी जाने लगती हैं। उत्तर आधुनिक विचारधारा इसी चाबुक को खारिज करती है और पागलपन को पर्याप्त स्पेस देती है, पनपने के लिए।
राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ इन्हीं चाबुकों को चुनौती देती है तथा पागलपन को परिपक्व होने तक उचित माहौल। रणछोड़ दास ( आमिर खान ) जीवन के स्टीरोयोटाइप आपाधापी के रण को छोड़ता है न कि अपनी मौलिक रचनात्मक और नवयुवा सुलभ जिज्ञासाओं और कौतुहलों के रण को। वह ज्ञान की जटिलताओं में नहीं उलझता है बल्कि मानवीय गतिविधियों से ही ज्ञान को आत्मसात करता है। रणछोड़ दास खुद को समझता है कि उसकी असली और मौलिक शक्ति क्या है? उसे हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का अप्रासांगिक और गैररचनात्मक दबाव कतई पसंद नहीं है। वह अपने दोस्त राजु (शरमन जोशी ) और फरहान (आर माधवन) को भी असली क्षमता से रूबरू करवाता है। राजू एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का हिस्सा है। एक तरफ वह परिवार की आर्थिक मजबूरी के कारण तथा दूसरी तरफ अप्रासंगिक हो चुकी शैक्षणिक व्यवस्था के अमानुषिक दबाव के कारण खुल कर कुछ नहीं कर पाता है।
फरहान की रूचि तथा दक्षता फोटोग्राफी में है जबकि माता-पिता उसे इंजीनियर बनाने पर तुले हैं। फरहान फिल्म में एक जगह कहता है कि ‘साला मुझसे किसी ने पूछा तक नहीं कि तुम्हें क्या बनना है?’ क्या हमारे समाज में यह स्थिति नहीं है कि बच्चे के जन्म लेते ही अभिभावक डॉक्टर, इंजीनियर बनाने का दबाव बनाने लगते हैं। आज हमारे समाज में यह हकीकत है कि बच्चों से अभिभावकों की अपेक्षाएं आसामान छूती हैं। इनकी अपेक्षाओं को एक हद तक उनकी मजबूरियों से जस्टीफाई कर सकते हैं, लेकिन यह बच्चों पर कहर बनकर टूटती है। उनका बचपना, मौलिकता और रचनात्मकता समय के साथ कुंद होते जाते हैं और अंततः भेड़ चाल में शामिल हो जाते हैं।
चूंकि सिनेमा एक दृश्य माध्यम है इसलिए यहां संवाद से ज्यादा दृश्य और भंगिमाओं की मांग होती है। य़दि 44 साल के आमिर खान इस फिल्म में 22 साल के रणछोड़ दास के चरित्र में पूरी तरह से फिट बैठते हैं तो अपनी भंगिमाओं के कारण। आमिर खान एक काबिल अभिनेता हैं जो इससे पूर्व की फिल्में ‘तारे जमीं’ पर और ‘लगान’ में अपनी काबिलीयत दिखा चुके हैं।
निर्देशक राजकुमार हिरानी अब तक ‘थ्री इडियट्स’ सहित तीन फिल्में बना चुके हैं- ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ इससे पहले की दो फिल्में हैं। दोनों अपने आप में कामयाब और काबिलेतारीफ। ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री इडियट्स’ भारतीय एजुकेशन सिस्टम को कटघरे में खड़ी करती हैं और कई सवाल छोड़ जाती हैं जिसका जबाव अब तक हमारी व्यवस्था के पास नहीं है। राजकुमार हिरानी कहते हैं कि ‘थ्री इडियट्स’ केवल शैक्षणिक व्यवस्था की विसंगतियों पर ही नहीं बल्कि अभिभावकों की गैर वाजिब अपेक्षाओं की भी खबर लेती है।
‘थ्री इडियट्स’ को देखते हुए आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ फिल्म बरबस याद आती है, लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है यह फिल्म उच्च शिक्षा को कटघरे में लाती है जबकि ‘तारे जमीं पर’ प्राथमिक शिक्षा को। हिरानी ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के माध्यम से दर्शकों को जादू की झप्पी दिलाते हैं तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के माध्यम से नए संदर्भ में गांधीगिरी को परोसते हैं वहीं ‘थ्री इडियट्स’ के माध्यम से आल ईज वेल की मौलिक परिकल्पना पेश करते हैं। यह फिल्म बड़े जोरदार तरीके से बताती है कि किताब से ज्ञान नहीं मिलता है बल्कि ज्ञान से किताबें लिखी जाती हैं।