मंगलवार, 31 मार्च 2009

राम की जय, भाजपा का भय

हिंदुबहुल इस राष्ट्र में रोज़ न जाने कितनी बार राम का नाम गूंजता होगा, परन्तु उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 6 मार्च को जो राम नाम की उदघोषणा हुई वह अलग थी। अगर बाकी जगह भक्त और भगवान के बीच का स्नेहपूर्ण संबध रहा होगा तो यहाँ बिल्कुल खांटी कट्टरवादिता थी। राम के नाम को एक ब्लैंक चैक (हमेशा) की तरह भुनाने की ख्वाहिश थी। यह भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को मलिन कर इसे एक हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की खतरनाक मंशा थी तो वहीँ हमेशा की तरह वोट बैंक बदने की पुरानी साजिश।

वरुण गाँधी ने जिस तरह मुस्लिम समुदाय को खुलेआम कोसा, उन्हें अपमानित किया, उससे चुनावी राजनीति की गन्दगी ही उभरकर सामने आई। बाबरी मस्जिद, गुजरात और कंधमाल के बाद लोकतंत्र ने देखा की बीजेपी चारित्रिक दुराव वाली वही पार्टी है जिसकी टहनियों पर तो बड़े-बड़े अक्षरों में सेकुलर लिखा रहता है परन्तु जड़ हिंदुत्व के मुद्दे में गहरी समाई हुई है।
उन्होंने क्या बोला यह बताने की जरुरत नहीं है परन्तु यहाँ यह सवाल उठाना अनिवार्य है की क्या कोई भी नेता यूँ ही राम का नाम मटियामेट कर सकता है(वैसे बीजेपी इसमें माहिर है)? जिस राम के राज्य में चारों तरफ शांति, खुशहाली और भाईचारे का माहौल रहता था,उसी राम के नाम को दुश्मनी बढाने में कैसे प्रयोग किया जा सकता है? जिस गाँधी ने अपनी जिन्दगी देश के नाम की और जिस नाम के दम पर ये(वरुण) चर्चित हैं उन्ही के पढाए पाठ को ये कैसे नकार सकते हैं? गीता की कसम भी खा ली।

२९ साल के वरुण गाँधी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता की वो राजनीति में बिलकुल कच्चे हैं। लगभग १९ साल की उम्र से ही उन्होंने अपनी माँ मेनका गाँधी के साथ राजनीति के गुर सीखने शुरू कर दिए थे। विभिन्न बैठकों, पार्टी क्रियाकलापों में हिस्सा लेते रहे थे। परन्तु फिर भी वे राजनीति में नए खिलाडी ही हैं। इसका जोड़-घटाव उन्हें मालूम नहीं है। यह कहकर की "भाषण की सी.डी के साथ छेड़छाड़ की गयी है" उन्होंने अपनी राजनितिक अपरिपक्वता को ही दर्शाया है।

आज उन्हें दूसरे संजय गाँधी के रूप में पेश किया जा रहा है, क्या यह एक प्रोपेगंडा नहीं है? जो ऐसा कहते फिर रहे हैं क्या वो यह बताने का कष्ट करेंगे की खुद संजय गाँधी के बारे में उनकी क्या राय थी। फिर दोनों में एक हद तक समानता है जरुर। जिस साम्प्रदायिकता को संजय ने ढोया, बेटा भी उसी पेड़ का फल खाना चाहता है।
वरुण गाँधी के बयान पर सबसे ज्यादा हस्यादपद स्थिति बीजेपी और उसके नेताओं की है। पार्टी आलाकमान जहां इसे गलत बता रहा है वहीँ कुछ नेता सही। बीजेपी की यही सोच भी है की खुद को सेकुलर दिखाते हुए इस मुद्दे का पूरा का पूरा लाभ भी ले लिया जाये। न खुल कर विरोध ही किया जाये न खुल कर समर्थन ही। वैसे भी इतने बड़े मुद्दे को बीजेपी क्यों छोड़ने लगी? कितने दिनों बाद तो सोयी हुई पार्टी और कार्यकर्ताओं में जान सी आई है। इसलिए बीच का रास्ता ज्यादा बढ़िया है। वैसे भी भारत में जितने प्रतिशत की वोटिंग होती है उसका बड़ा हिस्सा गरीब या मध्य वर्ग का होता है जिसकी
भावनाओं को धर्म के नाम पर भड़काना ज्यादा आसान होता है।

इस पूरे प्रकरण से एक बात तो तय है की वरुण गाँधी ने बीजेपी के सोये हुए मुद्दे, हिन्दुत्व, में नयी जान डाल दी है। वरुण गाँधी को भी मीडिया का भरपूर प्यार मिला और वो चंद घंटों में ही प्रसिद्धी पा गए। कार्यकर्ता उन्हें स्टार प्रचारक के रूप में देखने लगे हैं और उनका कथित मान भी बढ गया है। वे बीजेपी के बड़े नेताओं में गिने जाने लगे हैं। पर एक बात का पता नहीं चलता की इन तमाम बातों की रेटिंग करता कौन है? खैर!

मेरे विचार से पीलीभीत में जो भी बोला गया वो गलत है और देश की बहुजनसंख्यक जनता भी इसका विरोध करती है। बीजेपी जिस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये वोट बनाने के फेर में है, कहीं वो दांव उल्टा न पड़ जाये। उसका दुबारा वही हाल न हो जो बाबरी मस्जिद गिरने के बाद हुआ था, जब उसने जनमत संग्रह के नाम पर वोट माँगा था परन्तु लोगों ने राम की जन्मभूमि, उत्तर प्रदेश में ही उसे हरवाया। दुबारा सत्ता नहीं दी और राम राज्य की स्थापना के विचार को खारिज़ कर दिया। परन्तु इस वाकये से एक बात और सामने आ गयी की राजनीति और सत्ता के खेल में हर चीज़ जायज़ है। यहाँ सिर्फ वोट बैंक बनाने का काम महत्वपूर्ण है। जनता की भावनाएं और उनका विकास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है।

1 टिप्पणी:

shiva jat ने कहा…

धन्यवाद अभिषेक बहुत अच्छा लिखा और ब्लोग बनाया है। इसी तरह से हिंदुओं को जागरूक करते रहो। मेरा भी ब्लोग पढना
http://jatshiva.blogspot.com/
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