शनिवार, 28 मार्च 2009

वृक्ष की व्यथा

टूट-टूट कर गिरते हैं जब
डाली से पत्ते और फूल
वृक्ष विलापित होकर कहता है
कैसे जिऊंगा मै निर्मूल
कैसे दूंगा पथिकों को छाया
कहाँ पाएंगे वो फल और फूल
एकाकी तिरस्कृत होकर क्या मै
समझ पाउँगा जीवन मूल्य?

कितने कष्टों को सहकर मैंने
सिंचित किये कुछ अमूल्य उपहार
निष्ठुर पतझर के पवनो ने
किया उनपर बेवक्त प्रहार
भूमि पर गिरकर भी कुछ
लेते थे उन्मक्त सांसे
कुछ चीख-चीख कर चुप हो जाते
कुछ लगाते थे मुझसे आसें।

वही पथिक जो पाते थे
कभी इनसे सुरभि लाभ
पैरों तले कुचलकर इन्हें
करते गए मेरा उपहास।

सोचकर हर वृक्ष की व्यथा
अंतर्मन में दब जातीं हैं
कष्टों की सारी गाथाएं
वसंत में हर्ष की लतिका
पतझर में कंटक मालाएं॥

1 टिप्पणी:

SUNIL KUMAR SONU ने कहा…

ham dar ko sanson me pirote hai teri khushi ke liye.ham rote hai tanhayi me teri zindagi ke liye
JI BAHUT SUNDAR RACHNA HE