शनिवार, 28 मार्च 2009

बरसात की वह रात

अभी-अभी बिजली चमकी
घने बादलों के किसी कोने से
लपलपाती, विध्वंसक, ऊष्मायुक्त
जैसे चमके थे शब्द उसके
हृदय के अन्तःस्थल में
कानों को चीरते और
मन-मष्तिष्क को झकझोरते हुए।

"तुम इस लायक कभी थे ही नही"
हाँ! बस इतने ही शब्द
परन्तु विशाल सागर सामान
जैसा सागर मेघ बनाने को आतुर थे
काफी मेहनत और ठहराव से
पर वहां ठहराव कहाँ?
बस होठ हल्के से खुलकर बंद हो गए
एक जलजले की तरह।

कदम बढ़ गए थे उसके, पीछे छोड़कर
एक निस्तब्ध, काली, स्याह विरानगी
और दो कांपते हुए टांगों को
कहीं बिछुड़ गए नभ में
बदली के दो टुकड़े भी
एक दूसरे से विपरीत
तिरस्कृत और अस्तित्वविहीन होकर

शायद वहां हवा का कोई झोंका आया था
और यहाँ दुर्भाग्य की आंधी...........


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