हमारे सामने यह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं की आखिर हमारी सरकारे ऐसी क्यो हैं ? सरकार की नीद हमेशा तब क्यों खुलती है, जब पानी सर के ऊपर से निकलने लगता है। मुद्दे तो बहुत हैं जब सरकार का ऐसा रवैया रहा है। लेकिन यहाँ मैं सिर्फ चीन के साथ सीमा विवाद से संबंधित मुद्दे की बात कर रहा हूँ, जो कि अभी सुर्खियों में हैं।
1962 से पहले भारत चीन को अपना अच्छा पड़ोसी और अच्छा मित्र मानता था और भारत – चीन सीमा पर “ हिंदी-चीनी भाई-भाई ” के स्वर गूँजा करते थे। लेकिन 1962 के युद्ध के बाद ये भाई-भाई वाली धारणा समाप्त हों गई और चीन भारत का सबसे बड़ा शत्रु बनकर उभरा। लेकिन फिर प्रश्न यह उठता हैं कि, 1962 के युद्ध को युद्ध कहा जाए या उसे चीन का भारत पर आक्रमण। काफी मंथन के बाद मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इसे चीन का भारत पर आक्रमण ही कहा जाना चाहिए। आप यह सोंच रहें होंगे की मैंने ऐसा क्यों कहा। इसके पीछे मेरा तर्क है, कि 1962 मे भारत चीन के बीच जो लड़ाई हो रही थी उसमें भारत की ओर से चीन के खिलाफ किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया गया। उस समय चीनियों द्वारा भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया गया, वे आये थे अपनी मर्जी से और अपनी मर्जी से लौट भी गए और ऊपर से भारतीय भूमि पर कब्जा भी कर लिया। लड़ाई में बहुत सारे भारतीय सैनिक शहीद हुए लेकिन इसमें एक भी चीनी हताहत नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ निकाला जाय, यही न की यह एकतरफा आक्रमण था, जिसमें एक शक्तिशाली आक्रमणकारी का एक कमज़ोर के ऊपर आक्रमण हुआ और इसमे कमज़ोर पीछे हटने के अलावा कुछ न कर सका।
1962 का भारत पर चीनी आक्रमण का कारण दलाइ लामा का भारत आना नहीं था, बल्कि इसके पीछे तो साम्यवादी सरकार की विस्तारवादी नीति थी। चीन के इस विस्तारवाद के कारण चीन का उसके सारे पड़ोसी देशो के साथ भूमि को लेकर विवाद चल रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं हैं। भारत-चीन सीमा पर हाल में हो रहे गतिविधियों को ध्यान से देखें तो इसमे 1962 के चीनी आक्रमण की पुनरावृति दिखती है। रोज़ाना अख़बारो और न्यूज़ चैनलों में दिखाया जा रहा है इससे क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या अभी भी हमारी सरकार कानों में तेल डालकर सोई हुई है और जागने के लिए एक और आक्रमण का इन्त़जार कर रही है।
अभी जो सरकार ने चीन से संबंधित नीति को लेकर कदम उठाये हैं उससे यही लगता है कि हमारी सरकार जाग रही है। लेकिन हमारी सरकार जो काम अभी कर रही है सीमा क्षेत्रों के विकास से संबंधित वह तो 1962 के झटके के बाद ही कर लेना चाहिए था। नेता तो चुनाव से पहले लम्बी-लम्बी गप्पे हांकते हैं कि हम ये करेंगे, हम वो करेंगे, लेकिन जब वे लोग सत्ता में आते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं। और उनकी याद्दाश्त फिर वापस चुनाव के समय आती है, ये एक नहीं सभी सरकारो के साथ हैं, सभी झटके लगने का इंतज़ार करते हैं तभी उनकी आँखे खुलती हैं। अब आँखे खुल ही गई है तो सरकार को चाहिए कि वह चीन को मुँह तोड़ जवाब दे, सीमा क्षेत्रों के विकास कार्य को और तेज करे सैन्य शक्ति मजबूत करें। भारत की शांति की नीति को चीन हमारी कमज़ोरी समझने लगा है, उसकी इस धारणा को बदलने की आवश्यकता है। हमें ज़रुरत है हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीतिक प्रणाली और सैन्य ताकत को चीन के समकक्ष बनाने की। हमें चीनी ड्रैगन से डरने की कोई ज़रुरत नहीं है, चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति में भारत की भी अहम भूमिका है। यह चीन भी जानता है कि भारत के साथ संबंध खराब करना घाटे का सौदा है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
सबसे पहले तो आपका स्वागत आपके पहले ब्लाग के लिए.....आपने जो चिंता व्यक्त कि है वो जायज़ है मगर सबसे पहले इस बात को समझना होगा कि हर बार विकास के लिए चीन से तुलना करना कहाँ तक सही है। क्या हमारे विकास का पैमाना चीन है? क्या हमें खुद अपनी सोच विकसित नहीं करनी चाहिए?
चीन के साथ जो सीमा विवाद को लेकर बहस हो रही है उसके मै दोनों पक्षों की तरफ दृष्टी रखना चाहता हूँ. पहली बात की अगर मीडिया में ये बात आई है तो कुछ हद तक इसमें सच्चाई जरूर होगी. मीडिया ने बाकायदा कुछ चीजें दिखाकर इसपर अपनी बात रखी है लेकिन जिस रफ्तार और तीव्रता के साथ ख़बरों से खेला गया वो बहुत गलत था. माहौल ऐसा बनाने की कोशिश की गयी मानो अब तो भारत की धरती लाल रंग में पुत ही गयी. वहीँ अन्तराष्ट्रीय समुदाय में कुछ देश ये नहीं चाहते की भारत और चीन के बीच मामला बिलकुल सुलझ जाए. कई देशों के रक्षा सौदे इसी विवाद से सींचे जाते हैं. अब अभिषेक जी आप इतिहास को क्यों जीवंत बनाना चाहते हैं. जहाँ आप अपने यहाँ हुए एक आतंवादी हमले के दोषियों को सजा दिलवाने के लिए दूसरो के दरवाज़े खटखटाते हैं वहां चीन से लड़ने की बात अभी दूर की कौड़ी है. आदमी इतिहास से बहुत कुछ सीखता है और यही सीखता है की कुछ नहीं सीखता है. इसलिए शांति की प्रक्रिया अपनाई जाए तो इसमें सबका भला है.
एक टिप्पणी भेजें