बचपन में पढा था जल हीं जीवन है,
फिर क्यों यहाँ जीवन नहीं मरन है।
अपनी नदियों में तो जल का अंबार है,
फिर हर तरफ कैसी चीख – पुकार है
पानी में डूबे घर , खेत , आँगन: जैसे पानी ही सारा संसार है।
टीले पर छोटी सी बच्ची पानी से खेल रही है
अनाथ मासूम क्या जाने , उसकी माँ भी इसमें डूब गई है।
क्या जाने वो इस पानी ने क्या खेल खेला ,
उसके इस बिहार ने वर्षो से क्या –क्या झेला
आधुनिक विमान उपर से मंडराते है ।
नेता जी टीवी पर रोज जमकर चिल्लाते हैं,
कहते थे हम खाने के पैकेट फिंकवाते हैं,
हमारे लोग है इतने प्यारे , कुतों को भी इसमें साथ खिलाते हैं ।
टीवी वाले भी खूब ताली बजाते हैं,
दिल्ली में बैठे पूरे बिहार की हालत बताते हैं,
दुआ है कि तुम न कभी ये सब झेलो
इंसानियत बची है अगर एक बार उनके दुख को भी टटोली
शर्म तुम्हे गर आती नहीं , मत इतना चीखो चिल्लाओ
डूब चुके लोगों को ना और डूबाओ ।
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4 टिप्पणियां:
मुझे लग रहा है इस कविता से आपको कवि की नागरिकता मील ही गयी। मेरी तरफ से बधाई, इस नागरिकता के लिए। लेकिन नवोदित कवि इस नागरिकता को और परिपक्व बनाने की जरूरत है। आप एक बार इस कविता को खुद पढ़िए और तय कीजिए कि गद्य और पद में क्या अंतर होता है। इसे डाईजेस्ट कर लीजिएगा।
मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ, मगर इसे एक नवसिखिए का प्रयास मानिए, आगे आप लोगों के मागर्दशन से इसे सुधारने का प्रयास ज़रुर होगा...
vakai sharm nahi aati...vaichrik rachna...
एक ही बात कहनी है...
धीरे-धीरे रे मना
धीरे सबकुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा
ऋतु आवे फल होए
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