मैं जब-जब शराब पीता हूँ
तो समूचा जिंदा आदमी बन जाता हूँ
कुछ पल ही सही
लेकिन मेरा मरना रूक जाता है
अतीत में जितना मरा था
सब जिंदा हो जाता है
यह जिंदा होने का नशा
शराब के नशे पर हावी होने लगता है
लेकिन जिंदा होता हूँ शराब पीने के बाद
चुपचाप देखते रह गया था
चुपचाप सुनते रह गया था
बार-बार खुद को मार दिया
कभी बाबूजी ने डाँट दिया
कभी माँ ने- ज्यादा काबिल मत बनो
लेकिन अभी मैं समूचा जिंदा आदमी हूँ
कुछ पल ही सही
न बाबूजी की डाँट का डर है
न उन मठाधिशों का खौफ
इस पल को इतना जीना चाहता हूँ
कि जब-जब मरा था उसे संतुलित कर दूँ
लेकिन शराब का नशा उतरने लगता है
काश ऎसा होता कि बिना शराब पिए ही
समूचा जिंदा आदमी रहता
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
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1 टिप्पणी:
जिंदगी की चक्की इतना महीन पिसती है की बढ़िया से बढ़िया नशा हिरन हो जाए. सम्पूर्णता और अपने अन्दर स्थायित्व स्वयं को खोने से ही आता है, अब चाहे वो खोना किसी भी प्रकार के नशे में हो. प्रेम, विरह या फिर सांसारिक मोह का परित्याग. अंतिम सुख तो वही है जहाँ सारे नशे के बावजूद ज़िन्दगी का नशा सर चढ़ कर बोले जहाँ ना भूत का डर हो ना भविष्य का और ना ही आपके कथित मठाधीशों का.
अच्छी रचना है..... बहुत से लोग शराब में ज़िन्दगी पा लेते हैं लेकिन जो पूरी ज़िन्दगी में शराब घोल दे वही असली पीनेवाला है( जीवन रस को)
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