शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

“आधुनिक आदमी”

इस खबर से उस खबर भागती रहती है ये ज़िन्दगी
दिन और रात के फासले को पाटता रहता है मन
ख़ूनी सड़कें, ख़ौफ से डरी आँखों का दर्द
‘आधुनिक’ हो चुका ये मन मेरा,
नहीं पसीजता किसी घटना से
कभी दूसरों के लहू से व्याकुल हो उठने वाला
अब नरसंहारों को भी ‘ न्यूज़ ‘ ही कहता है
पशुओं को देव-तुल्य कहने वाला अब
इंसानों को पशु-तुल्य भी नहीं समझता है।
बाढ, सूखा, आत्महत्याएँ, विरोध-प्रदर्शन,
जीवन के अब सामान्य पहलु से हो चले
डरता हूँ कहीं आधुनिकता इतनी ना बढ जाए
नर-पिशाच विशेषण, नाम के साथ जुड़ जाए।

4 टिप्‍पणियां:

रजनीश सिंह ने कहा…

शशि जी समय और समाज की संवेदना को पहचानना होगा। वर्तमान समय के लिए कौन जिम्मेदार है ? दरअसल यह समय संक्रमण का तो है लेकिन ऎसा लगता है यह ज्यादा अस्वभाविक नहीं है। कहा तो यह जा रहा है कि इतिहास का अंत हो गया लेकिन इंसान इतिहास से जब सबक नहीं लेता है तो इतिहास खुद को दुहराता भी है। जार्ज बर्नाड शा ने भी कहा था कि ’’मनुष्य इतिहास से यह सीखता है कि मनुष्य इतिहास से कुछ नहीं सीखता है। ’’बहरहाल जीना तो इसी समय में है।
मेरी एक सलाह है कि शाटकर्ट के चक्कर में केवल कविता मत लिखा कीजिए।

Badal ने कहा…

शशि जी किसी बड़े मीडिया विद्वान ने कहा था की 20वी सदी के बाद कोई भी चीज़ हमें प्रभावित नहीं कर पाएगी. आज ज़माना उससे भी आगे का है क्योंकि हम उन चीज़ों को देखना ही नहीं चाहते.
चार पंक्तियाँ कहना चाहूँगा.......
पर दुःख से व्यथित होकर
बहते थे कभी मेरे भी नीर
सूख चुके अश्रु नयनों के
शुष्क पड़े हैं दोनों तीर

चाहत ने कहा…

बहुत अच्छा है
आधुनिक....

चाहत ने कहा…
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