बुधवार, 16 सितंबर 2009

लोकतंत्र का 'कुत्ता'

गर्मियों की उस तपती दुपहरी में
सड़क के बीचोंबीच,
ट्रैफिक में फंसा वह कुत्ता
बड़ा बेचैन और सहमा था।
वह कभी इधर को भागता
कभी उधर को
लेकिन हर बार रह जाता
बीच में ही फंसकर,
जैसे फंस जाते हैं कुछ और कुत्ते
लोकतंत्र इस रेलमपेल में
डरते, भागते, सहमते और कभी-कभी
गिड़गिडाते हुए मदद का इंतजार करते।
कभी भागते हैं ये 'लेफ्ट' की तरफ
तो कभी 'राइट' की तरफ़
थकहारकर खड़े हो जाते हैं 'सेंटर' में।

इस नस्ल के कुत्ते प्रायः
सड़कों पर ही पाए जाते हैं,
दर-दर भटकते
एक-एक निवाले को तरसते और
भूख से बिलबिलाते हुए।
इन कुत्तों के नाम नहीं होते
बस होते हैं तो रंग, मसलन
काला, सफ़ेद, भूरा और
कभी-कभी चितकाबर।
कुछ की दूसरी पहचान होती है
जैसे लंगडा, काना, मह्कौआ
हाँ मह्कौआ, क्योंकि नहीं नहा पाते वो
लोकतंत्र की इस बहती 'गंगा' में,
ये तो बस नालियों में लोटते हैं।

इन कुत्तों की ज़िंदगी कभी नहीं बदलती
बदलतीं हैं तो सिर्फ
सड़कें, गलियां और इनकी पार्टियाँ।
शायद इनका भाग्य यही है क्योंकि
ये हैं इस महान लोकतंत्र के सौतेले कुत्ते
ये हैं एक आम कुत्ते॥

6 टिप्‍पणियां:

Shashi ने कहा…

सही कहा भाई,इन कुत्तों की जगह सड़क पर ही है।

चन्दन कुमार ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन लिखा है....वाकई.अब तक की तुम्हारी सबसे बेहतरीन रचना....शब्द नहीं हैं मेरे पास कि ऐसी रचना भी तुम लिख सकते हो..शब्दों की विविधता और अर्थों में गहनता..लाजवाब है........

wanderer ने कहा…

kafi accha likha hai...pata nahi tumne suni hai ki nahi per youtube pe search karna "kutte" by basir badar.
zaroor sunana...usme bhi kafi kuch aisa hi kaha gaya hai, aur mai ye tmhari soch k dad deta hu jo tmhe basir badar sahab ke sath lakar khadi karti hai.
sadhuwad

रजनीश सिंह ने कहा…

इन्हे कुता कहो या लोमड़ी, लोकतंत्र यदि जिंदा है तो इन्ही के चलते। कम से कम लेफ्ट, राइट और सेंटर में जाने की स्वतंत्रता तो है। हम अभी भी दावे के साथ कह सकते हैं कि इतिहास ये कुत्ते ही बनाते हैं। कवि महोदय कृप्या कुत्ता इन्हें तो मत ही कहिए क्योंकि ये किसी के रहमोकरम पर नहीं जीते हैं।

Badal ने कहा…

आपने सही कहा अपनी बात के ज़रिए की इतिहास ये कुत्ते ही बनाते हैं. ये कुत्ते काटते भी हैं लेकिन पांच साल में एक बार और काफी गहरा निशान भी छोड़ते हैं लेकिन सवाल यही है की इन कुत्तों की जिंदगी कुम्भ के मेले की तरह ही क्यों हो ? क्यों छठे-छमासे ही इन्हे याद किया जाता है और सरकारी योजनायों के रूप में कुछ बोटियाँ इनकी तरफ फेंक दी जाती हैं? यहाँ लड़ाई भेड़ और भेडिये की नहीं बल्कि कुत्तों और गीदडों के बीच है. देखिये कौन जीतता है.....

wanderer ने कहा…

sorry my mistake..wo gazal basir ki nahi faiz ki thi.
here i sthe link..go through it.
http://www.youtube.com/watch?v=mEbUvlaf-Ag&feature=PlayList&p=DD495EBA5ECE730B&playnext=1&playnext_from=PL&index=101
prakash tumne kafi gahari baat kahati hai..yahan faiz ne bhi wahi kaha hai. "koi inki soyi huyi dum hila de"