मंगलवार, 15 सितंबर 2009
मीडिया है कठपुतली नहीं
मीडिया वो सशक्त माध्यम है जो एक आम आदमी की आवाज़ को बुलंद करता है। हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों का ही एक हिस्सा है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हाल के कुछ वर्षोँ में जहाँ मीडिया ने कुछ अच्छे काम किए वहीं कुछ शर्मसार करने वाले मुद्दों का भी ये जनक रहा है। कई ऐसे सवाल हैं जो मीडिया की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सरकार ये निर्धारित करे कि मीडिया को क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं।
दरअसल, जब भी मीडिया को नियंत्रित या अनुशासित करने का मुद्दा सामने आता है, यह भुला दिया जाता है कि नियंत्रण का प्रावधान तो हमारे संविधान में ही है। संविधान में स्वतंत्रता की अन्य किस्मों की ही तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी निरंकुश नहीं छोड़ा गया है। उस पर लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, कदाचार, राज्य की सुरक्षा आदि के हित में अंकुश लगाने की व्यवस्था है। ये सभी शर्तें मीडिया पर भी लागू होती हैं। मीडिया के किसी भी प्रतिनिधि ने यह दावा नहीं किया है कि हम संविधान और कानून से ऊपर हैं। फिर मीडिया पर अलग से नियंत्रण लागू करने की बात सोची या कही ही क्यों जाती है?
अगर मीडिया से उसकी वही स्वतंत्रता ही छीन ली जाएगी, जिसके लिए वह जाना जाता है, तो उसका अस्तित्व ही कहाँ रह जाएगा। सरकार अगर अपने मनमाफिक ढगं से मीडिया पर अंकुश लगाने लगी तो गलत कामों की निंदा कौन करेगा? इसलिए बजाए इसके कि सरकार मीडिया के काम में हस्तक्षेप करे, उसे मीडिया को खुद को नियंत्रित करने के लिए बाध्य करना चाहिए। संवेदनशील मुद्दे जैसे हत्या, बलात्कार आदि में कुछ हदें तय की जानी चाहिए जिसकी अवहेलना करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। मीडिया पर सरकारी पाबंदी लगाना बिलकुल भी जायज़ नहीं है। हम आज भी लोकतंत्र में जीते हैं और जबरन कोई भी कानून नहीं थोपा जाना चाहिए। मीडिया को भी खुद को नियंत्रित और संचालित करने की ज़रूरत है। वरना यह टकराव बार-बार उभरता रहेगा और इससे मीडिया की छवि पर धब्बा लगेगा। एक बात तो आज मीडिया को भी नहीं भूलनी चाहिए की स्वतंत्रता अगर हदों को पार कर जाए तो उछ्छृँख्लता कहलाती है।
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2 टिप्पणियां:
बिलकुल सही कहा आपने की सरकार मीडिया की स्वतंत्रता को धूमिल नहीं कर सकती लेकिन क्या यही बात मीडिया पर लागू नहीं होती की वो समाज, सामाजिक और उनके अधिकारों की बात को धूमिल ना करे. मीडिया के आत्मनियंत्रण की बात कहानी का आधा हिस्सा है जिसमे सेक्स, हिंसा, कॉमेडी और सनसनी तो है लेकिन एक वृहत जनसमुदाय की आवाज़ की गूंज नहीं है. यहाँ राजग, संप्रग तो है लेकिन विदर्भ, बुंदेलखंड नहीं है. मीडिया को चाहिए की आत्मनियंत्रण की बात को वो लागू करके दिखाए नहीं तो बाटला हाउस, सोहराबुद्दीन और इशरत ज़हां जैसे मामले हमेशा उसके मुंह पर कालिख पोतते रहेंगे.
इस बात से इनकार कौन करता है मगर इसका समाहान सरकारी नियंत्रण तो नहीं है ना???
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