मुंबई हमलों के दोषी क़साब की तरफ से मुकदमा लड़ने के लिए नियुक्त वकील 'अंजलि वाघमारे' के घर पर जिस तरह पथराव किया गया, इससे कुछ सवाल निकलकर सामने आएँ हैं। गौरतलब है की वकीलों ने यह केस लड़ने से मना कर दिया था जिसके बाद विशेष अदालत ने इस केस में उन्हें
क़साब की तरफ से नियुक्त किया है। अपने घर पर हुए इस पथराव के बाद उन्होंने कहा है की उन्हें एक दिन का समय चाहिए, जिसमें वो यह फैसला कर सकें की वो यह केस लडेंगी या नहीं।
भारत एक लोकतान्त्रिक देश है और यहाँ पर सारी प्रक्रिया का संचालन लोकतंत्र के अनुसार होता है। न्यायपालिका इस लोकतंत्र की उच्चतम संस्था है, जो शायद अभी तक दागदार नहीं हुई है। परन्तु इस घटना ने हमारे लोकतंत्र के सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। यह बहस अब होनी ही चाहिए की क़साब जैसे आतंकियों को वकील मिले या नहीं? निश्चित तौर पर क़साब घृणा का हकदार है और होना भी चाहिए,परन्तु क्या सिर्फ उसी घृणा के कारण हम अपनी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ही कुचल डालें? लोकतत्र में हर व्यक्ति को, चाहे वो अपराधी ही क्यों न हो, पूरा हक है की वह अपने बचाव में वकील रखे। फिर कसाब के लिए यह दुहरा पैमाना क्यों?
कुछ लोग यह सवाल कर रहें हैं की उसने देश की अस्मिता को चोट पहुचाई है, मुंबई नगरी को दो दिनों तक कैद सा कर दिया था, और सबसे बड़ी दरिंदगी की २०० लोगों की हत्या में वह शामिल है। इन सबके बावजूद क्या उसका केस लड़ना सही है? मै बोलूँगा जी बिलकुल उचित है। जब आपके पास उसके खिलाफ सारे सबूत हैं और आपको पता है की वो बचेगा नहीं तो फिर घबराने या उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं होनी चाहिए। यह लिख लीजिये की कोई भी वकील लाख कोशिशों के बावजूद उसे बचा नहीं पायेगा। अगर आप उसे न्यायिक प्रक्रिया के तहत सजा देंगे तो भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका की छवि मजबूत ही होगी और वह पूरे विश्व समुदाय के लिए एक मिसाल कायम करेगी। सिर्फ भावनावों के आधार पर देश चलता तो फिर कहना ही क्या था! अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर अपराधियों को जिन्दा पकड़ने की कोई जरुरत ही नहीं है। बस देखिये और मार दीजिये, परन्तु फिर बाद में मानवाधिकारों की दुहाई मत दीजियेगा।
उदाहरण के तौर पर निठारी कांड के अभियुक्तों, मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेन्द्र कोली को रखा जा सकता है। इनका अपराध भी बहुत संगीन था, शायद भारत में अपनी तरह का पहला केस था। इनका केस भी किसी वकील ने लड़ा(नाम सार्वजनिक नहीं किया गया है) लेकिन फिर भी वो बच नहीं पायें। उन्हें मौत की सजा दी गयी जो बिलकुल सही है। उनका वकील न उन्हें बचा सकता था न बचा पाया। फिर कसाब के साथ ऐसा क्यों हो? मै भी चाहता हूँ की क़साब को सजा हो और वो भी मौत की। लेकिन हो तो कानून के तहत। जहाँ हमारी विधायिका और कार्यपालिका पहले ही दागदार हो चुकीं हैं वहां न्यायपालिका पर दाग न लगे तो ही बेहतर है।
बहरहाल, वाघमारे के घर पर जिन्होंने हमला किया(शायद शिवसेना के लोग) क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए की देश में सैकडों ऐसे नेता हैं जो प्रमाणिक तौर पर अपराधी हैं, फिर आप इनके खिलाफ़ क्यों नहीं कुछ करते? देश को इनके हाथों बर्बाद करवा रहें हैं और ये भी दीमक की तरह देश को चाटते जा रहें हैं। वहीँ जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर हमला हुआ तो वे कहाँ सो रहे थे? आपने क्षेत्रवाद की गन्दी राजनीति की और एक मासूम का एनकाउन्टर कर काफी खुश हुए। क्या वो अपराध नहीं था? आप जब अपने ही भाई लोगों को मारेंगे तो दूसरा आपको क्यों न मारे? जब अपने ही घर में आग लगी हो तो बाहर वाले रोटियां सेकेंगे ही।
लोकतंत्र और सत्ता का यह खेल समय-समय पर खेला जाता रहा है और शायद खेला जाता रहेगा। लोगों को यह समझना होगा की न्यायपालिका का स्थान भावनाओं से ऊपर है और न्यायपालिका को भी इन भावनाओं की कद्र करते हुए क़साब को उचित सजा देनी होगी। निश्चित तौर पर वो सजा मौत से कम नहीं होनी चाहिए।
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1 टिप्पणी:
सही कहा है! सब सही ही कह रहे हैं। बस कोई सुनने वाला नहीं है। अब कहना छोड़कर चिल्लाना पड़ेगा।
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