रविवार, 19 अप्रैल 2009

लोकतंत्र में 'जूता'

कहते हैं जब आदमी हर जगह से निराश हो जाता है तो भगवान को याद करता है। उनसे मदद मांगता है न मिलने पर उन्ही को कोसता भी है। लेकिन अब लोगों ने भगवान को छोड़कर जूते का सहारा ले लिया है। चारों तरफ दनादन जूते बरसें, अभी बरस रहे हैं, और मौसम देखकर लग रहा है की बरसते ही रहेंगे। इसके संस्थापक या कहे की पितामह का दर्ज़ा
मुन्तज़र-अल-ज़ैदी
को दिया जाना चाहिए जिन्होंने पहली बार में ही ऐसा बेंचमार्क स्थापित किया की दुनिया दंग रह गयी। पहले तो लोग भौच्चके रह गए परन्तु हमेशा की तरह इस मीडिया प्रयोग को भी अपना लिया। फिर क्या था, 'बेन जिआबाओ, अरुंधती रॉय, पी. चिदंबरम और अब आडवानी' भी इस नए प्रयोग के दायरे में आ गए।

जूते के इन प्रकरणों से कुछ गंभीर सवाल निकलते हैं जिनपर विचार करना बहुत जरूरी है।

पहली बात यह की क्या कारण है की हर बार जूता निशाने से चूक गया? यह सवाल इसलिए भी अहम है की अगर कोई १०-२० फ़ुट की दूरी से जूता मारे और हर बार निशाना चूक जाये तो थोड़ा अटपटा सा लगता है। तो क्या इस जूता चलाने के पीछे सिर्फ सम्बंधित लोगों को आगाह मात्र करना था? वैसे हमे यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह 'पगड़ी उछालने' का अर्थ बहुत व्यापक होता है ठीक वैसे ही इस 'जूता फेंको' क्रांति का अर्थ बहुत बड़ा और गंभीर है।

सबसे पहला कारण तो निश्चित तौर पर असंतोष ही है। बुश कि इराक नीतियों से जनता आहत थी जिसका प्रतिनिधित्व मुन्तज़र-अल-ज़ैदी ने किया, अरुंधती रॉय के लेख से एक बड़ा तबका असहमत था जिसका प्रतिनिधित्व 'युवा' संगठन के एक नौजवान ने किया, सिख दंगों में न्याय नहीं मिलने से पूरा सिख समुदाय आहत था जिसका प्रतिनिधित्व जनरैल सिंह ने किया और बीजेपी पार्टी में फैले एक व्यापक असंतोष का प्रतिनिधित्व पावस अग्रवाल ने किया।

वस्तुत लोकतंत्र में फैलती गहरी असमानता, तंत्र से 'लोक' को अलग करने कि साज़िश और समाज में फैलते असुरक्षा के भाव ने लोगों को जड़ तक आहत और आक्रोशित किया है। इस आक्रोश का सैलाब मुंबई हमलों के बाद फूट पड़ा जिसका नेतृत्व भले ही खाते-पीते मध्यवर्ग ने किया परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसमें सबकी भागीदारी रही। लोकतंत्र का 'लोक' अब ऐसे मुहाने पर आ खड़ा है जहाँ से वो अब सिर्फ कड़े फैसले ही लेगा।

एक बात और आडवाणी पर जो जूता चला वो और मामलों से बिलकुल अलग रहा। जहाँ पार्टी ही सर्वेसर्वा हो, वहां पार्टी के ही एक कार्यकर्ता द्वारा,पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर जूता फेंकना बिल्कुल नई घटना है। पार्टी को मानने और उसकी विचारधारा को ग्रहण करने में सालों का वक़्त लगता है, फिर क्या बात रही की सालों की यह विचारधारा एक जूते के तले सिमट गयी। सवाल सचमुच बहुत गंभीर है।

'भारतीय लोकतंत्र में जूता' महज असंतोष, क्रोध और क्षोभ का ही सूचक नहीं है। यह दिखाता है की जब लोकतंत्र के पहरेदार, 'लोक' को भूलकर, केवल सूने तंत्र की बात करेंगे तो लोक को आखिरकार संकेतों के रूप में जूते ही चलाने पड़ेंगे। ये शायद सीधे-सीधे नहीं लगेंगे लेकिन मीडिया कवरेज से ऐसी मारक क्षमता विकसित करेंगे जिसकी अनुगूँज हर कोने में सुनाई देगी।

2 टिप्‍पणियां:

chandan ने कहा…

बकवास है,,,,कुछ बेहतर अपेक्षा थी,कुछ नयापन नहीं,वही घिसीपिटी बातें जो सुनते आ रहा हूँ...........

wanderer ने कहा…

blog ke baare me kahunga aur jyada detail me ja sakte the like akhir kyun unke paas koi aur rasta nahi tha ya wakai ye jaroori tha ya nahi.
haan ye topic kafi important hai aur complex bhi jaise bush aur chidambaram isake haqdar the.waise advani bhi haqdaar hain per aam janta ke!