सोमवार, 28 सितंबर 2009
भाषा के साथ संस्कार भी बदलते हैं: राहुल देव
नई दिल्ली, 24सितंबर: भारतीय जन संचार संस्थान में ‘हिन्दी का भविष्य बनाम भविष्य की हिन्दी’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में देश के जाने-माने संपादकों ने अपने विचार रखे। सी.एन.ई.बी न्यूज़ चैनल के सीईओ और प्रधान संपादक राहुल देव, नई दुनिया के राष्ट्रीय संपादक मधुसूदन आनंद, दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्रवण गर्ग और आज़तक के समाचार निदेशक क़मर वहीद नक़वी इस मौके पर उपस्थित थे। हिन्दी के भविष्य को लेकर इनमें से कुछ चिंतित थे तो कुछ उम्मीदों से भरे हुए दिखे। संगोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के वरिष्ठ शिक्षक प्रो.के.एम.श्रीवास्तव ने की और संचालन हिन्दी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक डॉ.आनंद प्रधान ने किया।
बीज वक्तय रखते हुए सी.एन.ई.बी न्यूज़ चैनल के सीईओ और प्रधान संपादक राहुल देव ने ख़तरे की घंटी बजाई। उनका कहना था कि अगर हिन्दी की यही हालत रही तो 2050 तक भारत लिखाइ और पढाई के सारे गंभीर काम अंग्रेज़ी में कर रहा होगा और हिन्दी सिर्फ मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी। उन्होनें कहा कि किसी भी भाषा के बदलने से उस भाषा को बोलने वालों के संस्कार भी बदलते हैं। राहुल देव की बात को निराशाजनक बताते हुए नई दुनिया के राष्ट्रीय संपादक मधुसूदन आनंद ने कहा कि बदलते समय और तकनीक के साथ हिन्दी को भीबदलना ही होगा वरना इसे खत्म होने से कोई नही बचा पाएगा। उन्होने कहा कि अगर अंग्रेज़ी के कुछ शब्द हिन्दी में आ रहे हैं तो उन्हें रोकना नही चाहिए।
इस अवसर पर दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्रवण गर्ग ने कहा कि भविष्य में वही हिन्दी चलेगी जो सरल होगी और आसानी से समझ में आने वाली होगी। उन्होनें कहा कि अंग्रेज़ी के शब्दों के आने से उसका वर्चस्व नहीं हो पाएगा बल्कि उससे हिन्दी और समृद्ध होगी। भविष्य की हिन्दी पर अपने विचार रखते हुए आज़तक के समाचार निदेशक क़मर वहीद नक़वी ने कहा कि भाषा में बदलाव और शब्दों का लेनदेन स्वभाविक है। उन्होनें इस बात को एक हद तक सही बताते हुए कहा कि भाषा का बदलाव ऐसा नही होना चाहिए कि उसके संस्कार ही खत्म हो जाए। उन्होनें कहा कि भाषा को पानी की तरह होना चाहिए, उसे जिस बरतन में रखा जाए उसी का रूप ले ले। संगोष्ठी का समापन प्रश्नकाल के साथ हुआ जिसमें इन संपादकों ने संस्थान के विधार्थियों के प्रश्नों के उत्तर दिए।
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
क्यों हैं हमारी सरकारें ऐसी ?
हमारे सामने यह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं की आखिर हमारी सरकारे ऐसी क्यो हैं ? सरकार की नीद हमेशा तब क्यों खुलती है, जब पानी सर के ऊपर से निकलने लगता है। मुद्दे तो बहुत हैं जब सरकार का ऐसा रवैया रहा है। लेकिन यहाँ मैं सिर्फ चीन के साथ सीमा विवाद से संबंधित मुद्दे की बात कर रहा हूँ, जो कि अभी सुर्खियों में हैं।
1962 से पहले भारत चीन को अपना अच्छा पड़ोसी और अच्छा मित्र मानता था और भारत – चीन सीमा पर “ हिंदी-चीनी भाई-भाई ” के स्वर गूँजा करते थे। लेकिन 1962 के युद्ध के बाद ये भाई-भाई वाली धारणा समाप्त हों गई और चीन भारत का सबसे बड़ा शत्रु बनकर उभरा। लेकिन फिर प्रश्न यह उठता हैं कि, 1962 के युद्ध को युद्ध कहा जाए या उसे चीन का भारत पर आक्रमण। काफी मंथन के बाद मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इसे चीन का भारत पर आक्रमण ही कहा जाना चाहिए। आप यह सोंच रहें होंगे की मैंने ऐसा क्यों कहा। इसके पीछे मेरा तर्क है, कि 1962 मे भारत चीन के बीच जो लड़ाई हो रही थी उसमें भारत की ओर से चीन के खिलाफ किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया गया। उस समय चीनियों द्वारा भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया गया, वे आये थे अपनी मर्जी से और अपनी मर्जी से लौट भी गए और ऊपर से भारतीय भूमि पर कब्जा भी कर लिया। लड़ाई में बहुत सारे भारतीय सैनिक शहीद हुए लेकिन इसमें एक भी चीनी हताहत नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ निकाला जाय, यही न की यह एकतरफा आक्रमण था, जिसमें एक शक्तिशाली आक्रमणकारी का एक कमज़ोर के ऊपर आक्रमण हुआ और इसमे कमज़ोर पीछे हटने के अलावा कुछ न कर सका।
1962 का भारत पर चीनी आक्रमण का कारण दलाइ लामा का भारत आना नहीं था, बल्कि इसके पीछे तो साम्यवादी सरकार की विस्तारवादी नीति थी। चीन के इस विस्तारवाद के कारण चीन का उसके सारे पड़ोसी देशो के साथ भूमि को लेकर विवाद चल रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं हैं। भारत-चीन सीमा पर हाल में हो रहे गतिविधियों को ध्यान से देखें तो इसमे 1962 के चीनी आक्रमण की पुनरावृति दिखती है। रोज़ाना अख़बारो और न्यूज़ चैनलों में दिखाया जा रहा है इससे क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या अभी भी हमारी सरकार कानों में तेल डालकर सोई हुई है और जागने के लिए एक और आक्रमण का इन्त़जार कर रही है।
अभी जो सरकार ने चीन से संबंधित नीति को लेकर कदम उठाये हैं उससे यही लगता है कि हमारी सरकार जाग रही है। लेकिन हमारी सरकार जो काम अभी कर रही है सीमा क्षेत्रों के विकास से संबंधित वह तो 1962 के झटके के बाद ही कर लेना चाहिए था। नेता तो चुनाव से पहले लम्बी-लम्बी गप्पे हांकते हैं कि हम ये करेंगे, हम वो करेंगे, लेकिन जब वे लोग सत्ता में आते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं। और उनकी याद्दाश्त फिर वापस चुनाव के समय आती है, ये एक नहीं सभी सरकारो के साथ हैं, सभी झटके लगने का इंतज़ार करते हैं तभी उनकी आँखे खुलती हैं। अब आँखे खुल ही गई है तो सरकार को चाहिए कि वह चीन को मुँह तोड़ जवाब दे, सीमा क्षेत्रों के विकास कार्य को और तेज करे सैन्य शक्ति मजबूत करें। भारत की शांति की नीति को चीन हमारी कमज़ोरी समझने लगा है, उसकी इस धारणा को बदलने की आवश्यकता है। हमें ज़रुरत है हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीतिक प्रणाली और सैन्य ताकत को चीन के समकक्ष बनाने की। हमें चीनी ड्रैगन से डरने की कोई ज़रुरत नहीं है, चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति में भारत की भी अहम भूमिका है। यह चीन भी जानता है कि भारत के साथ संबंध खराब करना घाटे का सौदा है।
1962 से पहले भारत चीन को अपना अच्छा पड़ोसी और अच्छा मित्र मानता था और भारत – चीन सीमा पर “ हिंदी-चीनी भाई-भाई ” के स्वर गूँजा करते थे। लेकिन 1962 के युद्ध के बाद ये भाई-भाई वाली धारणा समाप्त हों गई और चीन भारत का सबसे बड़ा शत्रु बनकर उभरा। लेकिन फिर प्रश्न यह उठता हैं कि, 1962 के युद्ध को युद्ध कहा जाए या उसे चीन का भारत पर आक्रमण। काफी मंथन के बाद मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इसे चीन का भारत पर आक्रमण ही कहा जाना चाहिए। आप यह सोंच रहें होंगे की मैंने ऐसा क्यों कहा। इसके पीछे मेरा तर्क है, कि 1962 मे भारत चीन के बीच जो लड़ाई हो रही थी उसमें भारत की ओर से चीन के खिलाफ किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया गया। उस समय चीनियों द्वारा भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया गया, वे आये थे अपनी मर्जी से और अपनी मर्जी से लौट भी गए और ऊपर से भारतीय भूमि पर कब्जा भी कर लिया। लड़ाई में बहुत सारे भारतीय सैनिक शहीद हुए लेकिन इसमें एक भी चीनी हताहत नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ निकाला जाय, यही न की यह एकतरफा आक्रमण था, जिसमें एक शक्तिशाली आक्रमणकारी का एक कमज़ोर के ऊपर आक्रमण हुआ और इसमे कमज़ोर पीछे हटने के अलावा कुछ न कर सका।
1962 का भारत पर चीनी आक्रमण का कारण दलाइ लामा का भारत आना नहीं था, बल्कि इसके पीछे तो साम्यवादी सरकार की विस्तारवादी नीति थी। चीन के इस विस्तारवाद के कारण चीन का उसके सारे पड़ोसी देशो के साथ भूमि को लेकर विवाद चल रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं हैं। भारत-चीन सीमा पर हाल में हो रहे गतिविधियों को ध्यान से देखें तो इसमे 1962 के चीनी आक्रमण की पुनरावृति दिखती है। रोज़ाना अख़बारो और न्यूज़ चैनलों में दिखाया जा रहा है इससे क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या अभी भी हमारी सरकार कानों में तेल डालकर सोई हुई है और जागने के लिए एक और आक्रमण का इन्त़जार कर रही है।
अभी जो सरकार ने चीन से संबंधित नीति को लेकर कदम उठाये हैं उससे यही लगता है कि हमारी सरकार जाग रही है। लेकिन हमारी सरकार जो काम अभी कर रही है सीमा क्षेत्रों के विकास से संबंधित वह तो 1962 के झटके के बाद ही कर लेना चाहिए था। नेता तो चुनाव से पहले लम्बी-लम्बी गप्पे हांकते हैं कि हम ये करेंगे, हम वो करेंगे, लेकिन जब वे लोग सत्ता में आते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं। और उनकी याद्दाश्त फिर वापस चुनाव के समय आती है, ये एक नहीं सभी सरकारो के साथ हैं, सभी झटके लगने का इंतज़ार करते हैं तभी उनकी आँखे खुलती हैं। अब आँखे खुल ही गई है तो सरकार को चाहिए कि वह चीन को मुँह तोड़ जवाब दे, सीमा क्षेत्रों के विकास कार्य को और तेज करे सैन्य शक्ति मजबूत करें। भारत की शांति की नीति को चीन हमारी कमज़ोरी समझने लगा है, उसकी इस धारणा को बदलने की आवश्यकता है। हमें ज़रुरत है हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीतिक प्रणाली और सैन्य ताकत को चीन के समकक्ष बनाने की। हमें चीनी ड्रैगन से डरने की कोई ज़रुरत नहीं है, चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति में भारत की भी अहम भूमिका है। यह चीन भी जानता है कि भारत के साथ संबंध खराब करना घाटे का सौदा है।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
सुविधा शुल्क जो देना पड़ता है!!!
हमारे देश में यह प्रचलन हो गया है कि किसी भी काम के लिए हमें सुविधा शुल्क देना पड़ता है। यह एक स्पीड मनी होता है जो आपके काम में गति लाता है और यदि आप सुविधा शुल्क नहीं देंगे तो आप कोई भी काम नहीं करा सकते। इस तंत्र ने देश में एक ऐसी कानून व्यवस्था का निर्माण किया है जो आम आदमी को हाशिए पर रखता है। देश की इस लचर कानून व्यवस्था का नौकरशाह व राजनीतिज्ञ दिल खोलकर लाभ उठाते हैं लेकिन आम आदमी को कोई भी काम कराने के लिए सुविधा शुल्क का सहारा लेना पड़ता है। जन्म या मृत्यु प्रमाणपत्र लेना हो, या फिर भीड़ भरी ट्रेन में सीट, हमें सुविधा शुल्क देना ही पड़ता है।
राजनीतिज्ञों के लिए यह सुविधा शुल्क मुख्य रूप से चुनाव लड़ने के काम आता है। ऐसे माहौल में जहां सभी कुछ या तो गैरकानूनी है या अवैध तरीके से प्राप्त किया जा रहा है, नियम कानून की बात करना बेमानी हो गया है। नियम कानून का पालन करने वाले लोग भी जब यह देखते हैं कि भ्रष्टाचारी फल फूल रहे हैं तो वे भी इस दबाव के आगे झुक जाते हैं। आज देश में बढ-चढ कर आम आदमी की बात की जा रही है। देश पर आए-दिन आंतरिक और बाहरी ख़तरों की बात होती रहती है मगर कोई इस सबसे बड़े ख़तरे की बात नहीं करता जो देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। देश का हर नागरिक तभी खुद को सुरक्षित महसूस कर सकता है जब सामान्य कार्यों जैसे कि ड्राईविंग लाईसेंस या गृह लोन लेने के लिए सुविधा शुल्क नहीं देना होगा। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक आम आदमी को सुविधा शुल्क देना होगा क्योंकि उन्हें जिंदा रहना है।
राजनीतिज्ञों के लिए यह सुविधा शुल्क मुख्य रूप से चुनाव लड़ने के काम आता है। ऐसे माहौल में जहां सभी कुछ या तो गैरकानूनी है या अवैध तरीके से प्राप्त किया जा रहा है, नियम कानून की बात करना बेमानी हो गया है। नियम कानून का पालन करने वाले लोग भी जब यह देखते हैं कि भ्रष्टाचारी फल फूल रहे हैं तो वे भी इस दबाव के आगे झुक जाते हैं। आज देश में बढ-चढ कर आम आदमी की बात की जा रही है। देश पर आए-दिन आंतरिक और बाहरी ख़तरों की बात होती रहती है मगर कोई इस सबसे बड़े ख़तरे की बात नहीं करता जो देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। देश का हर नागरिक तभी खुद को सुरक्षित महसूस कर सकता है जब सामान्य कार्यों जैसे कि ड्राईविंग लाईसेंस या गृह लोन लेने के लिए सुविधा शुल्क नहीं देना होगा। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक आम आदमी को सुविधा शुल्क देना होगा क्योंकि उन्हें जिंदा रहना है।
“आधुनिक आदमी”
इस खबर से उस खबर भागती रहती है ये ज़िन्दगी
दिन और रात के फासले को पाटता रहता है मन
ख़ूनी सड़कें, ख़ौफ से डरी आँखों का दर्द
‘आधुनिक’ हो चुका ये मन मेरा,
नहीं पसीजता किसी घटना से
कभी दूसरों के लहू से व्याकुल हो उठने वाला
अब नरसंहारों को भी ‘ न्यूज़ ‘ ही कहता है
पशुओं को देव-तुल्य कहने वाला अब
इंसानों को पशु-तुल्य भी नहीं समझता है।
बाढ, सूखा, आत्महत्याएँ, विरोध-प्रदर्शन,
जीवन के अब सामान्य पहलु से हो चले
डरता हूँ कहीं आधुनिकता इतनी ना बढ जाए
नर-पिशाच विशेषण, नाम के साथ जुड़ जाए।
दिन और रात के फासले को पाटता रहता है मन
ख़ूनी सड़कें, ख़ौफ से डरी आँखों का दर्द
‘आधुनिक’ हो चुका ये मन मेरा,
नहीं पसीजता किसी घटना से
कभी दूसरों के लहू से व्याकुल हो उठने वाला
अब नरसंहारों को भी ‘ न्यूज़ ‘ ही कहता है
पशुओं को देव-तुल्य कहने वाला अब
इंसानों को पशु-तुल्य भी नहीं समझता है।
बाढ, सूखा, आत्महत्याएँ, विरोध-प्रदर्शन,
जीवन के अब सामान्य पहलु से हो चले
डरता हूँ कहीं आधुनिकता इतनी ना बढ जाए
नर-पिशाच विशेषण, नाम के साथ जुड़ जाए।
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
शर्म तुम्हें गर आती नहीं
बचपन में पढा था जल हीं जीवन है,
फिर क्यों यहाँ जीवन नहीं मरन है।
अपनी नदियों में तो जल का अंबार है,
फिर हर तरफ कैसी चीख – पुकार है
पानी में डूबे घर , खेत , आँगन: जैसे पानी ही सारा संसार है।
टीले पर छोटी सी बच्ची पानी से खेल रही है
अनाथ मासूम क्या जाने , उसकी माँ भी इसमें डूब गई है।
क्या जाने वो इस पानी ने क्या खेल खेला ,
उसके इस बिहार ने वर्षो से क्या –क्या झेला
आधुनिक विमान उपर से मंडराते है ।
नेता जी टीवी पर रोज जमकर चिल्लाते हैं,
कहते थे हम खाने के पैकेट फिंकवाते हैं,
हमारे लोग है इतने प्यारे , कुतों को भी इसमें साथ खिलाते हैं ।
टीवी वाले भी खूब ताली बजाते हैं,
दिल्ली में बैठे पूरे बिहार की हालत बताते हैं,
दुआ है कि तुम न कभी ये सब झेलो
इंसानियत बची है अगर एक बार उनके दुख को भी टटोली
शर्म तुम्हे गर आती नहीं , मत इतना चीखो चिल्लाओ
डूब चुके लोगों को ना और डूबाओ ।
फिर क्यों यहाँ जीवन नहीं मरन है।
अपनी नदियों में तो जल का अंबार है,
फिर हर तरफ कैसी चीख – पुकार है
पानी में डूबे घर , खेत , आँगन: जैसे पानी ही सारा संसार है।
टीले पर छोटी सी बच्ची पानी से खेल रही है
अनाथ मासूम क्या जाने , उसकी माँ भी इसमें डूब गई है।
क्या जाने वो इस पानी ने क्या खेल खेला ,
उसके इस बिहार ने वर्षो से क्या –क्या झेला
आधुनिक विमान उपर से मंडराते है ।
नेता जी टीवी पर रोज जमकर चिल्लाते हैं,
कहते थे हम खाने के पैकेट फिंकवाते हैं,
हमारे लोग है इतने प्यारे , कुतों को भी इसमें साथ खिलाते हैं ।
टीवी वाले भी खूब ताली बजाते हैं,
दिल्ली में बैठे पूरे बिहार की हालत बताते हैं,
दुआ है कि तुम न कभी ये सब झेलो
इंसानियत बची है अगर एक बार उनके दुख को भी टटोली
शर्म तुम्हे गर आती नहीं , मत इतना चीखो चिल्लाओ
डूब चुके लोगों को ना और डूबाओ ।
मेरे लिए शराब
मैं जब-जब शराब पीता हूँ
तो समूचा जिंदा आदमी बन जाता हूँ
कुछ पल ही सही
लेकिन मेरा मरना रूक जाता है
अतीत में जितना मरा था
सब जिंदा हो जाता है
यह जिंदा होने का नशा
शराब के नशे पर हावी होने लगता है
लेकिन जिंदा होता हूँ शराब पीने के बाद
चुपचाप देखते रह गया था
चुपचाप सुनते रह गया था
बार-बार खुद को मार दिया
कभी बाबूजी ने डाँट दिया
कभी माँ ने- ज्यादा काबिल मत बनो
लेकिन अभी मैं समूचा जिंदा आदमी हूँ
कुछ पल ही सही
न बाबूजी की डाँट का डर है
न उन मठाधिशों का खौफ
इस पल को इतना जीना चाहता हूँ
कि जब-जब मरा था उसे संतुलित कर दूँ
लेकिन शराब का नशा उतरने लगता है
काश ऎसा होता कि बिना शराब पिए ही
समूचा जिंदा आदमी रहता
तो समूचा जिंदा आदमी बन जाता हूँ
कुछ पल ही सही
लेकिन मेरा मरना रूक जाता है
अतीत में जितना मरा था
सब जिंदा हो जाता है
यह जिंदा होने का नशा
शराब के नशे पर हावी होने लगता है
लेकिन जिंदा होता हूँ शराब पीने के बाद
चुपचाप देखते रह गया था
चुपचाप सुनते रह गया था
बार-बार खुद को मार दिया
कभी बाबूजी ने डाँट दिया
कभी माँ ने- ज्यादा काबिल मत बनो
लेकिन अभी मैं समूचा जिंदा आदमी हूँ
कुछ पल ही सही
न बाबूजी की डाँट का डर है
न उन मठाधिशों का खौफ
इस पल को इतना जीना चाहता हूँ
कि जब-जब मरा था उसे संतुलित कर दूँ
लेकिन शराब का नशा उतरने लगता है
काश ऎसा होता कि बिना शराब पिए ही
समूचा जिंदा आदमी रहता
बुधवार, 16 सितंबर 2009
लोकतंत्र का 'कुत्ता'
गर्मियों की उस तपती दुपहरी में
सड़क के बीचोंबीच,
ट्रैफिक में फंसा वह कुत्ता
बड़ा बेचैन और सहमा था।
वह कभी इधर को भागता
कभी उधर को
लेकिन हर बार रह जाता
बीच में ही फंसकर,
जैसे फंस जाते हैं कुछ और कुत्ते
लोकतंत्र इस रेलमपेल में
डरते, भागते, सहमते और कभी-कभी
गिड़गिडाते हुए मदद का इंतजार करते।
कभी भागते हैं ये 'लेफ्ट' की तरफ
तो कभी 'राइट' की तरफ़
थकहारकर खड़े हो जाते हैं 'सेंटर' में।
इस नस्ल के कुत्ते प्रायः
सड़कों पर ही पाए जाते हैं,
दर-दर भटकते
एक-एक निवाले को तरसते और
भूख से बिलबिलाते हुए।
इन कुत्तों के नाम नहीं होते
बस होते हैं तो रंग, मसलन
काला, सफ़ेद, भूरा और
कभी-कभी चितकाबर।
कुछ की दूसरी पहचान होती है
जैसे लंगडा, काना, मह्कौआ
हाँ मह्कौआ, क्योंकि नहीं नहा पाते वो
लोकतंत्र की इस बहती 'गंगा' में,
ये तो बस नालियों में लोटते हैं।
इन कुत्तों की ज़िंदगी कभी नहीं बदलती
बदलतीं हैं तो सिर्फ
सड़कें, गलियां और इनकी पार्टियाँ।
शायद इनका भाग्य यही है क्योंकि
ये हैं इस महान लोकतंत्र के सौतेले कुत्ते
ये हैं एक आम कुत्ते॥
सड़क के बीचोंबीच,
ट्रैफिक में फंसा वह कुत्ता
बड़ा बेचैन और सहमा था।
वह कभी इधर को भागता
कभी उधर को
लेकिन हर बार रह जाता
बीच में ही फंसकर,
जैसे फंस जाते हैं कुछ और कुत्ते
लोकतंत्र इस रेलमपेल में
डरते, भागते, सहमते और कभी-कभी
गिड़गिडाते हुए मदद का इंतजार करते।
कभी भागते हैं ये 'लेफ्ट' की तरफ
तो कभी 'राइट' की तरफ़
थकहारकर खड़े हो जाते हैं 'सेंटर' में।
इस नस्ल के कुत्ते प्रायः
सड़कों पर ही पाए जाते हैं,
दर-दर भटकते
एक-एक निवाले को तरसते और
भूख से बिलबिलाते हुए।
इन कुत्तों के नाम नहीं होते
बस होते हैं तो रंग, मसलन
काला, सफ़ेद, भूरा और
कभी-कभी चितकाबर।
कुछ की दूसरी पहचान होती है
जैसे लंगडा, काना, मह्कौआ
हाँ मह्कौआ, क्योंकि नहीं नहा पाते वो
लोकतंत्र की इस बहती 'गंगा' में,
ये तो बस नालियों में लोटते हैं।
इन कुत्तों की ज़िंदगी कभी नहीं बदलती
बदलतीं हैं तो सिर्फ
सड़कें, गलियां और इनकी पार्टियाँ।
शायद इनका भाग्य यही है क्योंकि
ये हैं इस महान लोकतंत्र के सौतेले कुत्ते
ये हैं एक आम कुत्ते॥
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
मीडिया है कठपुतली नहीं
मीडिया वो सशक्त माध्यम है जो एक आम आदमी की आवाज़ को बुलंद करता है। हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों का ही एक हिस्सा है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हाल के कुछ वर्षोँ में जहाँ मीडिया ने कुछ अच्छे काम किए वहीं कुछ शर्मसार करने वाले मुद्दों का भी ये जनक रहा है। कई ऐसे सवाल हैं जो मीडिया की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सरकार ये निर्धारित करे कि मीडिया को क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं।
दरअसल, जब भी मीडिया को नियंत्रित या अनुशासित करने का मुद्दा सामने आता है, यह भुला दिया जाता है कि नियंत्रण का प्रावधान तो हमारे संविधान में ही है। संविधान में स्वतंत्रता की अन्य किस्मों की ही तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी निरंकुश नहीं छोड़ा गया है। उस पर लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, कदाचार, राज्य की सुरक्षा आदि के हित में अंकुश लगाने की व्यवस्था है। ये सभी शर्तें मीडिया पर भी लागू होती हैं। मीडिया के किसी भी प्रतिनिधि ने यह दावा नहीं किया है कि हम संविधान और कानून से ऊपर हैं। फिर मीडिया पर अलग से नियंत्रण लागू करने की बात सोची या कही ही क्यों जाती है?
अगर मीडिया से उसकी वही स्वतंत्रता ही छीन ली जाएगी, जिसके लिए वह जाना जाता है, तो उसका अस्तित्व ही कहाँ रह जाएगा। सरकार अगर अपने मनमाफिक ढगं से मीडिया पर अंकुश लगाने लगी तो गलत कामों की निंदा कौन करेगा? इसलिए बजाए इसके कि सरकार मीडिया के काम में हस्तक्षेप करे, उसे मीडिया को खुद को नियंत्रित करने के लिए बाध्य करना चाहिए। संवेदनशील मुद्दे जैसे हत्या, बलात्कार आदि में कुछ हदें तय की जानी चाहिए जिसकी अवहेलना करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। मीडिया पर सरकारी पाबंदी लगाना बिलकुल भी जायज़ नहीं है। हम आज भी लोकतंत्र में जीते हैं और जबरन कोई भी कानून नहीं थोपा जाना चाहिए। मीडिया को भी खुद को नियंत्रित और संचालित करने की ज़रूरत है। वरना यह टकराव बार-बार उभरता रहेगा और इससे मीडिया की छवि पर धब्बा लगेगा। एक बात तो आज मीडिया को भी नहीं भूलनी चाहिए की स्वतंत्रता अगर हदों को पार कर जाए तो उछ्छृँख्लता कहलाती है।
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