दूसरे चरण के मतदान के ठीक एक दिन पहले झारखण्ड में माओवादियों ने फिर एक बड़ी घटना को अंजाम दिया. बरवाडीह से मुगलसराए के बीच चलने वाली बीडीएम पैसेंजर गाड़ी को लातेहार के पास चार घंटे तक अपने कब्जे में रखा जिसमे अनुमानतः ७०० यात्री सवार थे. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब २००६ में इसी ट्रेन को माओवादियों ने अपने कब्जे में रखा था. गनीमत यह रही की दोनों बार उन्होंने बिना किसी को नुकसान पहुचाए ट्रेन को छोड़ दिया।
झारखण्ड में नक्सली हिंसा कोई नई बात नहीं है. परन्तु क्या कारण है कि चुनाओं के दौरान उसका वीभत्स रूप उभरकर सामने आता है? जब तक २५-५० जवान कुर्बान नहीं हों, दो-चार बारूदी सुरंग न फटें तबतक यहाँ चुनाव नहीं हो पाते. सरकार चाहकर भी(?) क्यों नहीं कुछ कर पाती? आप किसी भी ज़िले में घूम लीजिए, हर जगह चुनाव बहिष्कार के पोस्टर दिख जायेंगे.
पिछड़ों कि राजनीति कर अब अपने ही स्वार्थ में लीन हो चुके नक्सलियों को यह मंजूर नहीं कि सरकार उनके अस्तित्व को नकारे. जब भी ऐसी कोशिश हुई है उन्होंने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है. सरकार के प्रति उनका असंतोष जगजाहिर है परन्तु कारण बहुत हद तक धुंधले पड़ चुके हैं. सत्ता और वर्ग संघर्ष का यह खेल अदभुत है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब बीजापुर के घने जंगलों में तहलका के 'अजीत साही' के साथ हुए इंटरव्यू में नक्सली नेता 'रेंगम' ने इस बात को स्वीकारा है कि हम अपनी सरकार चाहते हैं. आखिरकार झारखण्ड में नक्सलियों के इस बढ़ते वर्चस्व का कारण क्या है?
सबसे पहली बात तो जिन संसाधनों और आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी आज वही सन्दर्भ गायब हो चुका है. आदिवासियों के कल्याण के लिए बने शिक्षा, रोजगार की योजनाएं दम तोड़ रही हैं. वे आज भी अत्यंत गरीब, अशिक्षित और बेरोजगार हैं. उनका भरपूर दोहन किया जाता है. जहाँ १२५ रुपये दैनिक मजदूरी का प्रावधान है वही पाकुड़ ज़िले के कई संथाली मात्र ७०-८0 रुपये पर मजदूरी करते हैं. सरकार ने इनकी कितनी ही जमीन कारपोरेट घरानों को दे दी है. एक अनुमान के मुताबिक यहाँ लगभग सौ उद्योग लगने वाले हैं जो आदिवासियों के विद्रोह के कारण फिलहाल ठंढे बस्ते में हैं. अगर प्रमाण चाहिए तो आप पाकुड़, दुमका, गोड्डा आदि ज़िलों का भ्रमण कर लीजिए. सरकार का भेदभावपूर्ण रवैया, ग्रामीणों का असंतोष और उनकी निरक्षरता माओवादियों के सफलतम हथियार हैं.
एक अन्य कारण है इस राज्य की भौगोलिक बनावट जिसके बारे में ज्यादा बताने की जरुरत नहीं है.
इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण कारण राजनैतिक है. अपने नौ साल की छोटी सी जीवन अवधि में झारखण्ड की राजनीति काफ़ी अस्थिर रही है. नेताओं ने निजी स्वार्थ के लिए संसाधनों का भरपूर दोहन किया है. आदर्श राज्य बनाने की बात कोरी बकवास साबित हुई है. नक्सली खुलेआम हर निर्माण कार्य पर, खदानों से, पैसे वालों से लेवी लेते हैं जिसे सरकार रोक नहीं पाती. सबसे बड़ी बात कि कई नेता ऐसे हैं जिनकी नक्सलियों से सीधी सांठ-गाँठ है. ताजा उदाहरण ही लीजिए- झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने पलामू संसदीय सीट से कामेश्वर बैठा को अपना उम्मीदवार बनाया है. ये वही 'बैठा' हैं जो चन्द साल पहले गढ़वा, पलामू, कैमूर आदि ज़िलों के ज़ोनल कमांडर रह चुके हैं. जिनके नाम से लोग कांपते थे. जहाँ सरकार और नक्सलियों में अंतर्विरोध महज एक दिखावा हो वहां ऐसे हालात तो बनेंगे ही.
कुछ समय कि घटनाओं से, जो बना बनाया विश्वास था कि नक्सली आम लोगों को नहीं मारते वो अब टूट चुका है. कहीं १९८७ कि वो याद फिर से न ताज़ा हो जाये जब आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव 'सीतारमैया' ने पांच विधायकों का अपहरण कर लिया था और कहा था कि " ज़रूरत पड़ी तो राजीव गाँधी को भी अगवा किया जा सकता है". इस बार भी भले ही उन्होंने बिना किसी को नुकसान पहुचाए ट्रेन को छोड़ दिया लेकिन सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है कि इन सबका " जिम्मेवार कौन?"
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
मुद्दा बिल्कुल वाजिब है,और काफी हद तक सही तरीक़े से उठाया भी गया है......
Really it is very shameful incident for Jharkhand. The support of public has allowed this naxalites to grow and spread. They are now very deep rooted and it is very difficult to pluck them out completly. Proper education,Employment and building of basic infrastructure can only shake their roots. News from my constituency is that naxalite leader baitha is going to win by big margin.
एक टिप्पणी भेजें