मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में बैठने के लिए बारहवीं कक्षा में कम से कम 80 प्रतिशत अंक लाने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म दिया है। हालांकि अपनी कही बात पर इतनी तीखी प्रतिक्रियाएँ आने पर उन्होने झट से सफाई भी पेश कर दिया। अपनी बात को बदलते हुए उन्होनें कहा है कि विशेषज्ञों की समीति अच्छी तरह विचार करने के बाद यह तय करेगी कि न्यूनतम अंक क्या होंगे? कपिल सिब्बल के अनुसार ऐसा करने से छात्र 12वीं की बोर्ड परीक्षा को गंभीरता से लेंगे और आईआईटी के साथ अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कोचिंग संस्थानों पर अंकुश लगेगा । विद्यार्थियों को नंबरों की अंधी दौड़ से बचाने के लिए दसवीं में ग्रेडिंग सिस्टम लाए जाने पर तमाम तरह के तर्क दिए गए थे और इस कदम पर वाहवाही भी लूटी गई थी पर आईआईटी प्रवेश परीक्षा के मामले में वो सारी बातें क्यों भुला दी गईं? एक तरफ तो हम 10वीं के छात्रों को नंबरों की अंधी दौड़ से बचाना चाहते हैं, दूसरी तरफ 12वीं के छात्रों को इसी दौड़ में क्यों झोंक रहे हैं? देश भर में इसके विरोध में स्वर उठने लगे हैं, खासतौर से बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के छात्र और शिक्षा से जुड़े लोग इस प्रस्ताव से आगबबूला हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 80 प्रतिशत या इससे अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है क्योंकि इन राज्यों में 12वीं की परीक्षा का स्तर बहुत कठिन होता है और 12वीं के साथ 11वीं के प्रश्न भी पूछे जाते हैं। दूसरी तरफ सीबीएसई में थोक के भाव में 80 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाले छात्र मिल जाते हैं । वैसे भी जब देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग बोर्ड हैं और पाठ्यक्रम में भी आकाश और पाताल का अंतर है तब 80 प्रतिशत अंकों का ऐसा फरमान थोपना समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती है। इन बे सिर-पैर की बातों और अंकों की इस अँधी दौर में गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थि पीछे छूटते जाएँगे और उनकी प्रतिभा का कोई मोल नहीं रह जाएगा।
सरकार आईआईटी और इसी स्तर के सभी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण देती है मगर 80 प्रतिशत अंकों की बाध्यता का प्रभाव क्या उन लोगों पर नहीं पड़ेगा? लाखों विद्यार्थियों का आईआईटी में जाने का सपना चकनाचूर हो जाएगा। ऐसे विद्यार्थि जिनके पास अपनी कड़ी मेहनत के अलावा न तो सीबीएसई बोर्ड जैसी चमक-धमक होती है और ना ही उतनी सुविधाएँ। अगर विद्यार्थि इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य पेशेवर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण में जाते हैं तो यह शिक्षा व्यवस्था की खामी का परिणाम है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की गुणवत्ता को बनाए रखना जरूरी है मगर साथ ही यह सुनिश्चित करना भी सरकार का ही दायित्व है कि इसमें प्रवेश पाने वाले समाज के सभी वर्गो से हों। किसी एक परीक्षा के आधार पर योग्यता को मापना उचित नहीं है।
अगर इस तरह का कोई काम करना भी है तो इसे निष्पक्ष रूप से तभी किया जा सकता है जब सभी राज्यों में एक ही बोर्ड हो उनके पाठ्यक्रम में समानता हो और शिक्षा में बराबरी हो । तभी ऐसी शर्त को उचित ठहराया जा सकता है वरना तो इससे एक साजिश की बू आती रहेगी जहाँ विकास से वंचित और पिछड़े तबके को और पीछे धकेलने की तैयारियाँ चल रही है।
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 80 प्रतिशत या इससे अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है क्योंकि इन राज्यों में 12वीं की परीक्षा का स्तर बहुत कठिन होता है और 12वीं के साथ 11वीं के प्रश्न भी पूछे जाते हैं। दूसरी तरफ सीबीएसई में थोक के भाव में 80 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाले छात्र मिल जाते हैं । वैसे भी जब देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग बोर्ड हैं और पाठ्यक्रम में भी आकाश और पाताल का अंतर है तब 80 प्रतिशत अंकों का ऐसा फरमान थोपना समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती है। इन बे सिर-पैर की बातों और अंकों की इस अँधी दौर में गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थि पीछे छूटते जाएँगे और उनकी प्रतिभा का कोई मोल नहीं रह जाएगा।
सरकार आईआईटी और इसी स्तर के सभी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण देती है मगर 80 प्रतिशत अंकों की बाध्यता का प्रभाव क्या उन लोगों पर नहीं पड़ेगा? लाखों विद्यार्थियों का आईआईटी में जाने का सपना चकनाचूर हो जाएगा। ऐसे विद्यार्थि जिनके पास अपनी कड़ी मेहनत के अलावा न तो सीबीएसई बोर्ड जैसी चमक-धमक होती है और ना ही उतनी सुविधाएँ। अगर विद्यार्थि इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य पेशेवर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण में जाते हैं तो यह शिक्षा व्यवस्था की खामी का परिणाम है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की गुणवत्ता को बनाए रखना जरूरी है मगर साथ ही यह सुनिश्चित करना भी सरकार का ही दायित्व है कि इसमें प्रवेश पाने वाले समाज के सभी वर्गो से हों। किसी एक परीक्षा के आधार पर योग्यता को मापना उचित नहीं है।
अगर इस तरह का कोई काम करना भी है तो इसे निष्पक्ष रूप से तभी किया जा सकता है जब सभी राज्यों में एक ही बोर्ड हो उनके पाठ्यक्रम में समानता हो और शिक्षा में बराबरी हो । तभी ऐसी शर्त को उचित ठहराया जा सकता है वरना तो इससे एक साजिश की बू आती रहेगी जहाँ विकास से वंचित और पिछड़े तबके को और पीछे धकेलने की तैयारियाँ चल रही है।
2 टिप्पणियां:
यह कि वर्णव्यवस्था अब नये रूप मे है।
wake up sibbal!
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