बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

लुट गयी ये ज़मीं, लुट गया आसमां

कुछ घाव ऐसे होते हैं जो कभी नहीं भरते हैं। वक़्त इन घावों पर मरहम लगाकर इनकी टीस कुछ कम करने की कोशिश जरूर करता है लेकिन दर्द की स्मृतियों को भुला पाना क्या इतना आसन होता है? भारत-पाकिस्तान विभाजन का घाव तो पूरे देश को मालूम है लेकिन इस घाव का असली दर्द तो इनको झेलने वाले ही जानते हैं। शायद इसी दर्द को बयां करती है असगर वजाहत द्वारा लिखित नाटक "जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्या ही नई"।

असगर वजाहत लिखित इस नाटक के बीस साल पूरे होने पर श्रीराम सेंटर में इसका विशेष प्रदर्शन किया गया। गौरतलब है की आज से बीस साल पहले हबीब तनवीर ने इसी रंगमंडल के साथ इस नाटक को पहली बार मंचित किया था। यह नाटक एक उर्दू पत्रकार के यात्रा संस्मरण से प्रेरित है जिसमें भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय लाहौर में अकेली बच गयी एक हिन्दू बुढ़िया की दास्तान है। विभाजन और अपनी जमीन से अलग होने का दर्द नाटक के केंद्रबिंदु हैं और धर्म, उन्माद, और भाईचारे का धीरे-धीरे अंकुरित होता बीज इसके आसपास घूमते अनेक ध्रुव। वैसे ध्रुव जिनका मिलन कहीं सुखद है तो कहीं अत्यंत दुखद। यह केंद्रबिंदु और इसके विभिन्न ध्रुवों को मिलाकर एक ऐसी कथा का निर्माण होता जो इतिहास के संभवतः सबसे बड़े विस्थापन का जीवंत चित्र उकेरने में कामयाब होती है।

विभाजन पर चाहे 'कितने पाकिस्तान', 'गर्म हवा', 'पिंजर' या फिर 'तमस' किसी की बात की जाए तो फिर भी 'जिस लाहौर नई देख्या' को देखने का अपना अलग ही अनुभव है। माई की भूमिका में शोभा वर्मा, पहलवान के अभिनय में अतुल जस्सी और नासिर काज़मी के चढ़ते -उतरते संवादों और अभिनय के जरिये आप लगभग दो घंटे तक बिलकुल मंत्रमुग्ध से बैठे रहेंगे। कहानी में मानवीय संवेदनाओं, धर्म की अधूरी समझ के कारण उपजी धर्मान्धता और अपने मूल जड़ से कटने की व्यथा को चंद घंटों में बांधने में यह नाटक बिलकुल सफल हुआ है। नासिर काज़मी के हालात के अनुसार नाटक में बोले गए शेर मानवीय अंतर्द्वंद के कई अनछुए पहलुओं को बड़ी खूबसूरती के साथ तराशकर बाहर निकालते हैं। विषय पूरी तरह गंभीर है लेकिन कहीं-कहीं हास्य रस वातावरण को बोझिल होने से बचाता है।

यह नाटक वर्तमान सन्दर्भ में हमसे कई सवाल पूछता हुआ सा मालूम पड़ता है। मसलन, क्या धर्म के आगे मानवता की तिलांजलि देना उचित है। अलग-अलग धर्म क्या सिर्फ उसी एक महान सत्ता को नहीं मानते जो अमूर्त है। अपने मूल जड़ों से कटकर क्या आदमी ज्यों का त्यों बना रह सकता है और सबसे अहम् सवाल की क्या विभाजन की त्रासदी को भूलकर हम मिलकर नहीं रह सकते और सभी धर्मों से बढ़कर क्या कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसमे सभी बराबर हो। हाँ एक धर्म ऐसा है, और वो है मानवता का धर्म। चलते-चलते एक गाना याद आ रहा है " पंछी नदियाँ पवन के झोकें, कोई सरहद ना इन्हे रोके"।

1 टिप्पणी:

Shashi ने कहा…

सही कहा प्रकाश भाई...अत्याचार का शिकार तो हर हाल में आम इंसान ही होता है..इस को अगर ये रूढ़ीवादी नहीं समझते तो इन नीच लोगों को इंसान कहना भी पाप है..ये तो बस इंसान की लाशों की चिता पर अपनी रोटियाँ सेकना जानते हैं।