बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एम्स बन गया है विदेशी मरीजों का डॉक्टर


अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान यानि ‘एम्स’ भारत में स्वास्थय जगत का सबसे प्रतिस्ठित नाम है। यहाँ डॉक्टरी की शिक्षा में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों पर सरकार लगभग 98 लाख से लेकर 170 लाख तक खर्च करती है लेकिन ये पैसा भारत से ज्यादा विदेशी मरीजों की सेवा में लग रहा है। एक सर्वे के अनुसार इस संस्थान से डॉक्टर बनकर निकलने वालों में से 54 प्रतिशत विदेशी मरीजों की नब्ज देखना पसंद करते हैं।
लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने यहाँ विद्यार्थियों पर हो रहे खर्च का ब्योरा तो दिया मगर यहाँ डॉक्टरों में बढ़ी विदेशी पसंद पर कुछ भी नही कहा। भारतीय छात्रों के प्रतिभा पलायन का ये कोई इकलौता उदाहरण नही है। चाहे वो इंजीनियरिंग के छात्र हों या डॉक्टरी के, भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा लेकर ये लोग विदेश का रूख करना पसंद करने लगे हैं। इस बात की दुहाई दी जाती है कि भारत में प्रतिभावान इंजीनियारों, वैज्ञानिकों, डाक्टरों आदि को उनकी योग्यता के अनुकूल काम करने की सुविधाएँ और स्थितियाँ नहीं मिलतीं, लिहाजा वे विदेशों की ओर रूख करने को बाध्य होते हैं। लेकिन ये सच्चाई का एक ही पहलु है, ये लोग अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं की खोज में विदेशी बनकर रहना पसंद करते हैं।
विश्व स्वास्थय संगठनके अनुसार 100 लोगों की जनसंख्या पर एक डॉक्टर होना चाहिए मगर हमारे देश में ये अनुपात दस हजार पर एक डॉक्टर का है। एक तो देश में अच्छे अस्पतालों के अभाव के कारण एम्स जैसे संस्थानों में मरीजों की इतनी मारामारी होती है कि दूर-दराज से आए लोगों को कई दिनों तक खुले आसमान को ही छत बनाना पड़ता है ऊपर से डॉक्टरों की कमी से इनपर दोहरी मार पड़ती है।
सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि सरकार जब यहाँ इतना पैसा बहाती है तो वो यहाँ की जनता के काम क्यों नहीं आता? इससे बड़ा सवाल ये है कि क्यों नहीं देश के तमाम भागों में ऐसे संस्थान बनाए जाते हैं ताकि इन संस्थानों पर इतना बोझ ही ना पड़े? इसके अलावा ऐसे मानदंड भी बनाए जाने की जरूरत है जिससे इन लोगों के पलायन पर रोक लगाई जा सके। जब देश का इतना पैसा इनकी पढ़ाई पर खर्च होता है तो इन्हें भी अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

'Brain Drain' is batter then 'Brain in the Drain'.