गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009
दया नहीं समाज में सम्मान चाहिए
एक साल पहले तक नागालैंड की अचुंग्ला भी उन मेधावी विधार्थियों में थी जो कड़ी मेहनत के बाद डॉक्टरी की शिक्षा में प्रवेश पाते हैं। दिल में ऊँचे ख़्वाब और डॉक्टर बन लोगों की सेवा करने के भाव से भरी थी अचुंगला। दिमागी बुखार(मेनिनजाइटिस) की गिरफ्त में आने से पहले वो भी समाज की मुख्यधारा से उसी तरह जुड़ी थी जैसे हम सब आज जुड़े हैं। इस बिमारी की वजह से उसकी सुनने की शक्ति जाती रही और वो भी उन लोगों की श्रेणी में आ गइ जिन्हें हमारा समाज मूक-बधिर कहकर बेगाना बना देता है।
ये कहानी सिर्फ अचुंग्ला की नहीं है ये कहानी है देश के उन तमाम लोगों की जो हमारे समाज में अलग-थलग सा महसूस करते हैं। वे हमसे थोड़ा अलग हैं। वे बोल और सुन नहीं सकते हैं। उनकी खुशी और गम चेहरे के भाव से पता चलती है। आजादी के 60 साल बाद भी हम उनकी शिक्षा का पुख्ता प्रबंध नहीं कर पाए, वह आज भी हमसे मदद की उम्मीद रखते हैं। उन्हें शिक्षा व शिक्षक का महत्व पता है। हम बात कर रहे हैं मूक-बधिर बच्चों की। हमारे शिक्षा सिस्टम में मिडिल के बाद मूक-बधिर बच्चों के लिए न तो शिक्षा संस्थान मिलते हैं और न ही 'स्पेशल टीचर।' इन लोगों को ना तो आम लोगों के साथ कॉलेजों में पढने-लिखने की सुविधा मिलती है और ना ही इन्हें सामान्य ज़िन्दगी नसीब हो पाती है, मगर निराशा के इस अंधकार में रोशनी की कुछ किरनें उजाला करने की कोशिश में लगी हैं।
दिल्ली के अरूना आसफ अली मार्ग पर स्थित ‘ऑल इन्डिया फेडरेशन ऑफ द डेफ’ ऐसी ही एक संस्था है। सन् 1955 से यह संस्था एक मिशन की तरह समाज से बहिष्कृत इन लोगों के हौसले बुलंद करने का काम कर रही है। इस संस्था के वरिष्ठ शिक्षक राजकुमार झा बताते हैं कि ये संस्था एक एन.जी.ओ है और भारत सरकार इसे फंड भी देती है। संस्था में इन बच्चों को उनकी रूचि के मुताबिक कई ऐसी कलाएँ सिखायी जाती हैं जिनसे वो खुद पर निर्भर हो सकें। फोटोग्राफी, डॉटा-इन्ट्री, सिलाई जैसी रोजगार देने वाली कलाओं में इन्हें ट्रेंड किया जाता है। यहाँ लड़के और लड़कियों के लिये छात्रावास की सुविधा भी दी जाती है। यहाँ प्रवेश की योग्यता आठवीं पास है और छात्रों से हर महीने 1130रूपये लिए जाते हैं जिसमें उन्हें रहने और खाने की सुविधा भी दी जाती है। राजकुमार झा बताते हैं कि इन बातों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण काम यहाँ किया जाता है वो है इन लोगों के मनोबल को बढाना। अचुंग्ला भी आज यहाँ फोटोग्राफी सीख रही है और अपने टूटे हुए मनोबल को वापस लाने की कोशिश कर रही है, मगर अलग होने का दर्द उसकी आँखों में साफ दिखता है। यहाँ जो बच्चे आते हैं उनके परिवार वाले उन्हें बोझ समझते हैं और बस पैसे देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इस बात की चिंता किसी को नहीं होती कि इनके अकेलेपन को कैसे दूर किया जाए।
बजाए इसके की इन लोगों को समाज कि मुख्यधारा से जोड़ा जाए हर कोई बस पैसे देकर छुटकारा पाना चाहता है, चाहे वो हमारी सरकार हो या फिर इन लोगों के परिवार। बसों में या और जगहों पर लोग इन्हें ऐस देखते हैं मानो ये किसी और दुनिया से आए हैं। क्या हमारी संवेदना इस हद तक मर चुकी है कि हम उन लोगों को अपने साथ भी नहीं खड़ा कर सकते जो अपने हर पल में संघर्ष की एक मिसाल कायम करते हैं? क्या इंसानियत और पैसा तराजु पर बराबर हो चुके हैं? अगर नहीं, तो गली बार जब अचुंग्ला जैसे लोगों से मिलें तो उन्हें दया नही सम्मान की दृष्टि से देखें।
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2 टिप्पणियां:
बहुत ही बढ़िया लिखा है....वाक़ई काबिलेग़ौर और रूचिकर भी लगा.......रूचिकर इसलिए कि एक लाइन पढ़ने के बाद पढ़ता चला गया. इंफॉर्मेटिव होने की वजह से ध्यान देने वाली...........
काफी अच्छी रिपोर्ट है. समाज के कुछ ऐसे ही पहलुओं को उजागर करते रहिए. आशा है आगे भी कुछ ऐसी बातों की जानकारी देंगे जो मुख्यधारा से अलग और महत्वपूर्ण होगी.
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