
बहरहाल, शन्नो और आकृति दोनों ही लड़कियाँ स्कूल के दोषपूर्ण रवैए के कारण अब इस दुनिया में नहीं हैं। शन्नो भवाना के एमसीडी स्कूल की दूसरी क्लास में पढ़ने वाली ११ वर्षीया छात्रा थी, जो कड़ी धूप में मुर्गा बनाए जाने के कारण कोमा में चली गयी थी और उसके बाद उसकी मौत हो गयी। वहीँ आकृति भाटिया वसंत कुंज के माडर्न स्कूल में बारहवीं की छात्रा थी जो अस्थमा की मरीज थी। सही समय पर चिकित्सा की सुविधा नहीं मिलने पर उसकी मौत हुई। दोनों ही जगहों पर स्कूल की खामियाँ दो मौतों के रूप में उजागर हुई।
अब फिर से हम अपने सवाल पर आते हैं। शन्नो की मौत पंद्रह अप्रैल को हुई। अगले ही दिन स्कूल की अध्यापिका को निकाल दिया गया। आकृति की मौत इक्कीस अप्रैल को हुई और उसके बाद क्या हुआ सबको पता है। शन्नो की मौत के दस दिनों बाद तक रेणुका जी कुछ नहीं बोलती हैं लेकिन आकृति की मौत के बाद महज तीन-चार दिनों के भीतर ही वो क्यों सबके सामने आकर बोलती हैं? इक्कीस अप्रैल के बाद चार दिनों के भीतर ही वो पच्चीस अप्रैल को प्रेस कांफ्रेंस करती हैं। शन्नो की मौत के दस दिनों तक वो कहाँ थी? वही आकृति की मौत के बाद उनका बयान महज तीन से चार दिनों के भीतर आ गया। क्यों? सवाल यह है की अगर शन्नो के बाद आकृति की मौत नहीं हुई होती तो भी क्या रेणुका जी प्रेस कांफ्रेंस करतीं? निश्चित तौर पर आकृति की मौत के बाद उसके माँ-बाप के प्रभाव के चलते उन्हें जवाब देना पड़ा होगा। तो क्या एक गरीब छात्रा की मौत पर उनको वैसा दुःख नहीं हुआ जैसा की आकृति की मौत पर, जिसका उन्हें सरेआम इज़हार तक करना पड़ा। शन्नो की मौत के महज कुछ दिनों के भीतर हुई आकृति की मौत ने निश्चित रूप से एक उत्प्रेरक का काम किया। जो मामला ठंढा पड़ता जा रहा था और जिसपर बाल कल्याण मंत्रालय ने कोई बयान नहीं दिया उसे इसके लिए मजबूर होना पड़ा।
अब भले ही रेणुका जी जो चाहे कह ले लेकिन अमीर बनाम गरीब का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। एमसीडी के स्कूल अभी भी उपेक्षा के ही पात्र हैं। अभी दिल्ली में चल रहा ताज़ातरीन मामला ही देखिए। पूर्वी दिल्ली के विनोद नगर, कड़कड़डूमा आदि इलाकों से सैकड़ो बच्चे गायब होते जा रहें हैं परन्तु सरकार को शायद कोई परवाह नहीं है। बाल कल्याण मंत्रालय भी चुप्पी साधे हुए है। पुलिस तो यहाँ तक कह देती है की मामला प्रेम प्रसंग या घर से भागने का है। गौरतलब है की इसमें पांच से आठ साल के बच्चे भी शामिल हैं। अब पुलिस से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाता की आठ साल का बच्चा कैसे प्रेम प्रसंग करेगा? निठारी काण्ड को ही लीजिए। पुलिस और प्रशासन ने कई सालों तक मामले पर ध्यान नहीं दिया था जिसकी परिणति कैसी हुई सबके सामने है। वहीँ कुछ साल पहले नॉएडा में एक बड़े कंपनी के सीईओ के बेटे का अपहरण हुआ था तो कैसे पुलिस और प्रशासन हरकत में आ गयी थी। कुछ ही दिनों के भीतर उन्होंने मामला सुलझा भी लिया था। तो फिर ये मामले क्यों अधूरे पड़े हैं? क्या प्रशासन इन्हे सचमुच सुलझा नहीं पा रही है या इससे उन्हें कोई खास मतलब नहीं है? कारण वही की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की कोई औकात नहीं होती? उनकी परवाह किसी को भी नहीं है।
अमीर बनाम गरीब का सवाल हमेशा से रहा है और शायद अभी ख़त्म भी नहीं होने वाला है। अब रेणुका चौधरी भले ही इससे इंकार कर ले लेकिन सच्चाई उन्हें भी पता है। शन्नो और आकृति भले ही इस दुनिया में नहीं रहीं, लेकिन उन्होंने एक बार फिर से इस समाज की दुखती रग पर हाथ रख दिया है जिसे छूने से शायद कई बुद्धिजीवी भी घबरातें हैं।