बाल कल्याण मंत्री 'रेणुका चौधरी' ने भले ही यह कह दिया की 'शन्नो और आकृति के मामले में कोई भेदभाव नहीं किया गया है। राष्ट्र के निर्माण में हर बच्चा एक इकाई की तरह है'। लेकिन कुछ सवाल हैं जो उनकी इस बात के विरोध में दिखाई देते हैं। एक सवाल यह भी उठना चाहिए की क्या सचमुच एक झुग्गी में रहने वाले, सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले और एक पॉश इलाके में रहने वाले और अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे में सचमुच कोई भेदभाव नहीं होता है?
बहरहाल, शन्नो और आकृति दोनों ही लड़कियाँ स्कूल के दोषपूर्ण रवैए के कारण अब इस दुनिया में नहीं हैं। शन्नो भवाना के एमसीडी स्कूल की दूसरी क्लास में पढ़ने वाली ११ वर्षीया छात्रा थी, जो कड़ी धूप में मुर्गा बनाए जाने के कारण कोमा में चली गयी थी और उसके बाद उसकी मौत हो गयी। वहीँ आकृति भाटिया वसंत कुंज के माडर्न स्कूल में बारहवीं की छात्रा थी जो अस्थमा की मरीज थी। सही समय पर चिकित्सा की सुविधा नहीं मिलने पर उसकी मौत हुई। दोनों ही जगहों पर स्कूल की खामियाँ दो मौतों के रूप में उजागर हुई।
अब फिर से हम अपने सवाल पर आते हैं। शन्नो की मौत पंद्रह अप्रैल को हुई। अगले ही दिन स्कूल की अध्यापिका को निकाल दिया गया। आकृति की मौत इक्कीस अप्रैल को हुई और उसके बाद क्या हुआ सबको पता है। शन्नो की मौत के दस दिनों बाद तक रेणुका जी कुछ नहीं बोलती हैं लेकिन आकृति की मौत के बाद महज तीन-चार दिनों के भीतर ही वो क्यों सबके सामने आकर बोलती हैं? इक्कीस अप्रैल के बाद चार दिनों के भीतर ही वो पच्चीस अप्रैल को प्रेस कांफ्रेंस करती हैं। शन्नो की मौत के दस दिनों तक वो कहाँ थी? वही आकृति की मौत के बाद उनका बयान महज तीन से चार दिनों के भीतर आ गया। क्यों? सवाल यह है की अगर शन्नो के बाद आकृति की मौत नहीं हुई होती तो भी क्या रेणुका जी प्रेस कांफ्रेंस करतीं? निश्चित तौर पर आकृति की मौत के बाद उसके माँ-बाप के प्रभाव के चलते उन्हें जवाब देना पड़ा होगा। तो क्या एक गरीब छात्रा की मौत पर उनको वैसा दुःख नहीं हुआ जैसा की आकृति की मौत पर, जिसका उन्हें सरेआम इज़हार तक करना पड़ा। शन्नो की मौत के महज कुछ दिनों के भीतर हुई आकृति की मौत ने निश्चित रूप से एक उत्प्रेरक का काम किया। जो मामला ठंढा पड़ता जा रहा था और जिसपर बाल कल्याण मंत्रालय ने कोई बयान नहीं दिया उसे इसके लिए मजबूर होना पड़ा।
अब भले ही रेणुका जी जो चाहे कह ले लेकिन अमीर बनाम गरीब का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। एमसीडी के स्कूल अभी भी उपेक्षा के ही पात्र हैं। अभी दिल्ली में चल रहा ताज़ातरीन मामला ही देखिए। पूर्वी दिल्ली के विनोद नगर, कड़कड़डूमा आदि इलाकों से सैकड़ो बच्चे गायब होते जा रहें हैं परन्तु सरकार को शायद कोई परवाह नहीं है। बाल कल्याण मंत्रालय भी चुप्पी साधे हुए है। पुलिस तो यहाँ तक कह देती है की मामला प्रेम प्रसंग या घर से भागने का है। गौरतलब है की इसमें पांच से आठ साल के बच्चे भी शामिल हैं। अब पुलिस से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाता की आठ साल का बच्चा कैसे प्रेम प्रसंग करेगा? निठारी काण्ड को ही लीजिए। पुलिस और प्रशासन ने कई सालों तक मामले पर ध्यान नहीं दिया था जिसकी परिणति कैसी हुई सबके सामने है। वहीँ कुछ साल पहले नॉएडा में एक बड़े कंपनी के सीईओ के बेटे का अपहरण हुआ था तो कैसे पुलिस और प्रशासन हरकत में आ गयी थी। कुछ ही दिनों के भीतर उन्होंने मामला सुलझा भी लिया था। तो फिर ये मामले क्यों अधूरे पड़े हैं? क्या प्रशासन इन्हे सचमुच सुलझा नहीं पा रही है या इससे उन्हें कोई खास मतलब नहीं है? कारण वही की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की कोई औकात नहीं होती? उनकी परवाह किसी को भी नहीं है।
अमीर बनाम गरीब का सवाल हमेशा से रहा है और शायद अभी ख़त्म भी नहीं होने वाला है। अब रेणुका चौधरी भले ही इससे इंकार कर ले लेकिन सच्चाई उन्हें भी पता है। शन्नो और आकृति भले ही इस दुनिया में नहीं रहीं, लेकिन उन्होंने एक बार फिर से इस समाज की दुखती रग पर हाथ रख दिया है जिसे छूने से शायद कई बुद्धिजीवी भी घबरातें हैं।
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
जिम्मेवार कौन?
दूसरे चरण के मतदान के ठीक एक दिन पहले झारखण्ड में माओवादियों ने फिर एक बड़ी घटना को अंजाम दिया. बरवाडीह से मुगलसराए के बीच चलने वाली बीडीएम पैसेंजर गाड़ी को लातेहार के पास चार घंटे तक अपने कब्जे में रखा जिसमे अनुमानतः ७०० यात्री सवार थे. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब २००६ में इसी ट्रेन को माओवादियों ने अपने कब्जे में रखा था. गनीमत यह रही की दोनों बार उन्होंने बिना किसी को नुकसान पहुचाए ट्रेन को छोड़ दिया।
झारखण्ड में नक्सली हिंसा कोई नई बात नहीं है. परन्तु क्या कारण है कि चुनाओं के दौरान उसका वीभत्स रूप उभरकर सामने आता है? जब तक २५-५० जवान कुर्बान नहीं हों, दो-चार बारूदी सुरंग न फटें तबतक यहाँ चुनाव नहीं हो पाते. सरकार चाहकर भी(?) क्यों नहीं कुछ कर पाती? आप किसी भी ज़िले में घूम लीजिए, हर जगह चुनाव बहिष्कार के पोस्टर दिख जायेंगे.
पिछड़ों कि राजनीति कर अब अपने ही स्वार्थ में लीन हो चुके नक्सलियों को यह मंजूर नहीं कि सरकार उनके अस्तित्व को नकारे. जब भी ऐसी कोशिश हुई है उन्होंने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है. सरकार के प्रति उनका असंतोष जगजाहिर है परन्तु कारण बहुत हद तक धुंधले पड़ चुके हैं. सत्ता और वर्ग संघर्ष का यह खेल अदभुत है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब बीजापुर के घने जंगलों में तहलका के 'अजीत साही' के साथ हुए इंटरव्यू में नक्सली नेता 'रेंगम' ने इस बात को स्वीकारा है कि हम अपनी सरकार चाहते हैं. आखिरकार झारखण्ड में नक्सलियों के इस बढ़ते वर्चस्व का कारण क्या है?
सबसे पहली बात तो जिन संसाधनों और आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी आज वही सन्दर्भ गायब हो चुका है. आदिवासियों के कल्याण के लिए बने शिक्षा, रोजगार की योजनाएं दम तोड़ रही हैं. वे आज भी अत्यंत गरीब, अशिक्षित और बेरोजगार हैं. उनका भरपूर दोहन किया जाता है. जहाँ १२५ रुपये दैनिक मजदूरी का प्रावधान है वही पाकुड़ ज़िले के कई संथाली मात्र ७०-८0 रुपये पर मजदूरी करते हैं. सरकार ने इनकी कितनी ही जमीन कारपोरेट घरानों को दे दी है. एक अनुमान के मुताबिक यहाँ लगभग सौ उद्योग लगने वाले हैं जो आदिवासियों के विद्रोह के कारण फिलहाल ठंढे बस्ते में हैं. अगर प्रमाण चाहिए तो आप पाकुड़, दुमका, गोड्डा आदि ज़िलों का भ्रमण कर लीजिए. सरकार का भेदभावपूर्ण रवैया, ग्रामीणों का असंतोष और उनकी निरक्षरता माओवादियों के सफलतम हथियार हैं.
एक अन्य कारण है इस राज्य की भौगोलिक बनावट जिसके बारे में ज्यादा बताने की जरुरत नहीं है.
इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण कारण राजनैतिक है. अपने नौ साल की छोटी सी जीवन अवधि में झारखण्ड की राजनीति काफ़ी अस्थिर रही है. नेताओं ने निजी स्वार्थ के लिए संसाधनों का भरपूर दोहन किया है. आदर्श राज्य बनाने की बात कोरी बकवास साबित हुई है. नक्सली खुलेआम हर निर्माण कार्य पर, खदानों से, पैसे वालों से लेवी लेते हैं जिसे सरकार रोक नहीं पाती. सबसे बड़ी बात कि कई नेता ऐसे हैं जिनकी नक्सलियों से सीधी सांठ-गाँठ है. ताजा उदाहरण ही लीजिए- झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने पलामू संसदीय सीट से कामेश्वर बैठा को अपना उम्मीदवार बनाया है. ये वही 'बैठा' हैं जो चन्द साल पहले गढ़वा, पलामू, कैमूर आदि ज़िलों के ज़ोनल कमांडर रह चुके हैं. जिनके नाम से लोग कांपते थे. जहाँ सरकार और नक्सलियों में अंतर्विरोध महज एक दिखावा हो वहां ऐसे हालात तो बनेंगे ही.
कुछ समय कि घटनाओं से, जो बना बनाया विश्वास था कि नक्सली आम लोगों को नहीं मारते वो अब टूट चुका है. कहीं १९८७ कि वो याद फिर से न ताज़ा हो जाये जब आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव 'सीतारमैया' ने पांच विधायकों का अपहरण कर लिया था और कहा था कि " ज़रूरत पड़ी तो राजीव गाँधी को भी अगवा किया जा सकता है". इस बार भी भले ही उन्होंने बिना किसी को नुकसान पहुचाए ट्रेन को छोड़ दिया लेकिन सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है कि इन सबका " जिम्मेवार कौन?"
झारखण्ड में नक्सली हिंसा कोई नई बात नहीं है. परन्तु क्या कारण है कि चुनाओं के दौरान उसका वीभत्स रूप उभरकर सामने आता है? जब तक २५-५० जवान कुर्बान नहीं हों, दो-चार बारूदी सुरंग न फटें तबतक यहाँ चुनाव नहीं हो पाते. सरकार चाहकर भी(?) क्यों नहीं कुछ कर पाती? आप किसी भी ज़िले में घूम लीजिए, हर जगह चुनाव बहिष्कार के पोस्टर दिख जायेंगे.
पिछड़ों कि राजनीति कर अब अपने ही स्वार्थ में लीन हो चुके नक्सलियों को यह मंजूर नहीं कि सरकार उनके अस्तित्व को नकारे. जब भी ऐसी कोशिश हुई है उन्होंने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है. सरकार के प्रति उनका असंतोष जगजाहिर है परन्तु कारण बहुत हद तक धुंधले पड़ चुके हैं. सत्ता और वर्ग संघर्ष का यह खेल अदभुत है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब बीजापुर के घने जंगलों में तहलका के 'अजीत साही' के साथ हुए इंटरव्यू में नक्सली नेता 'रेंगम' ने इस बात को स्वीकारा है कि हम अपनी सरकार चाहते हैं. आखिरकार झारखण्ड में नक्सलियों के इस बढ़ते वर्चस्व का कारण क्या है?
सबसे पहली बात तो जिन संसाधनों और आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी आज वही सन्दर्भ गायब हो चुका है. आदिवासियों के कल्याण के लिए बने शिक्षा, रोजगार की योजनाएं दम तोड़ रही हैं. वे आज भी अत्यंत गरीब, अशिक्षित और बेरोजगार हैं. उनका भरपूर दोहन किया जाता है. जहाँ १२५ रुपये दैनिक मजदूरी का प्रावधान है वही पाकुड़ ज़िले के कई संथाली मात्र ७०-८0 रुपये पर मजदूरी करते हैं. सरकार ने इनकी कितनी ही जमीन कारपोरेट घरानों को दे दी है. एक अनुमान के मुताबिक यहाँ लगभग सौ उद्योग लगने वाले हैं जो आदिवासियों के विद्रोह के कारण फिलहाल ठंढे बस्ते में हैं. अगर प्रमाण चाहिए तो आप पाकुड़, दुमका, गोड्डा आदि ज़िलों का भ्रमण कर लीजिए. सरकार का भेदभावपूर्ण रवैया, ग्रामीणों का असंतोष और उनकी निरक्षरता माओवादियों के सफलतम हथियार हैं.
एक अन्य कारण है इस राज्य की भौगोलिक बनावट जिसके बारे में ज्यादा बताने की जरुरत नहीं है.
इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण कारण राजनैतिक है. अपने नौ साल की छोटी सी जीवन अवधि में झारखण्ड की राजनीति काफ़ी अस्थिर रही है. नेताओं ने निजी स्वार्थ के लिए संसाधनों का भरपूर दोहन किया है. आदर्श राज्य बनाने की बात कोरी बकवास साबित हुई है. नक्सली खुलेआम हर निर्माण कार्य पर, खदानों से, पैसे वालों से लेवी लेते हैं जिसे सरकार रोक नहीं पाती. सबसे बड़ी बात कि कई नेता ऐसे हैं जिनकी नक्सलियों से सीधी सांठ-गाँठ है. ताजा उदाहरण ही लीजिए- झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने पलामू संसदीय सीट से कामेश्वर बैठा को अपना उम्मीदवार बनाया है. ये वही 'बैठा' हैं जो चन्द साल पहले गढ़वा, पलामू, कैमूर आदि ज़िलों के ज़ोनल कमांडर रह चुके हैं. जिनके नाम से लोग कांपते थे. जहाँ सरकार और नक्सलियों में अंतर्विरोध महज एक दिखावा हो वहां ऐसे हालात तो बनेंगे ही.
कुछ समय कि घटनाओं से, जो बना बनाया विश्वास था कि नक्सली आम लोगों को नहीं मारते वो अब टूट चुका है. कहीं १९८७ कि वो याद फिर से न ताज़ा हो जाये जब आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव 'सीतारमैया' ने पांच विधायकों का अपहरण कर लिया था और कहा था कि " ज़रूरत पड़ी तो राजीव गाँधी को भी अगवा किया जा सकता है". इस बार भी भले ही उन्होंने बिना किसी को नुकसान पहुचाए ट्रेन को छोड़ दिया लेकिन सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है कि इन सबका " जिम्मेवार कौन?"
रविवार, 19 अप्रैल 2009
लोकतंत्र में 'जूता'
कहते हैं जब आदमी हर जगह से निराश हो जाता है तो भगवान को याद करता है। उनसे मदद मांगता है न मिलने पर उन्ही को कोसता भी है। लेकिन अब लोगों ने भगवान को छोड़कर जूते का सहारा ले लिया है। चारों तरफ दनादन जूते बरसें, अभी बरस रहे हैं, और मौसम देखकर लग रहा है की बरसते ही रहेंगे। इसके संस्थापक या कहे की पितामह का दर्ज़ा
मुन्तज़र-अल-ज़ैदी को दिया जाना चाहिए जिन्होंने पहली बार में ही ऐसा बेंचमार्क स्थापित किया की दुनिया दंग रह गयी। पहले तो लोग भौच्चके रह गए परन्तु हमेशा की तरह इस मीडिया प्रयोग को भी अपना लिया। फिर क्या था, 'बेन जिआबाओ, अरुंधती रॉय, पी. चिदंबरम और अब आडवानी' भी इस नए प्रयोग के दायरे में आ गए।
जूते के इन प्रकरणों से कुछ गंभीर सवाल निकलते हैं जिनपर विचार करना बहुत जरूरी है।
पहली बात यह की क्या कारण है की हर बार जूता निशाने से चूक गया? यह सवाल इसलिए भी अहम है की अगर कोई १०-२० फ़ुट की दूरी से जूता मारे और हर बार निशाना चूक जाये तो थोड़ा अटपटा सा लगता है। तो क्या इस जूता चलाने के पीछे सिर्फ सम्बंधित लोगों को आगाह मात्र करना था? वैसे हमे यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह 'पगड़ी उछालने' का अर्थ बहुत व्यापक होता है ठीक वैसे ही इस 'जूता फेंको' क्रांति का अर्थ बहुत बड़ा और गंभीर है।
सबसे पहला कारण तो निश्चित तौर पर असंतोष ही है। बुश कि इराक नीतियों से जनता आहत थी जिसका प्रतिनिधित्व मुन्तज़र-अल-ज़ैदी ने किया, अरुंधती रॉय के लेख से एक बड़ा तबका असहमत था जिसका प्रतिनिधित्व 'युवा' संगठन के एक नौजवान ने किया, सिख दंगों में न्याय नहीं मिलने से पूरा सिख समुदाय आहत था जिसका प्रतिनिधित्व जनरैल सिंह ने किया और बीजेपी पार्टी में फैले एक व्यापक असंतोष का प्रतिनिधित्व पावस अग्रवाल ने किया।
वस्तुत लोकतंत्र में फैलती गहरी असमानता, तंत्र से 'लोक' को अलग करने कि साज़िश और समाज में फैलते असुरक्षा के भाव ने लोगों को जड़ तक आहत और आक्रोशित किया है। इस आक्रोश का सैलाब मुंबई हमलों के बाद फूट पड़ा जिसका नेतृत्व भले ही खाते-पीते मध्यवर्ग ने किया परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसमें सबकी भागीदारी रही। लोकतंत्र का 'लोक' अब ऐसे मुहाने पर आ खड़ा है जहाँ से वो अब सिर्फ कड़े फैसले ही लेगा।
एक बात और आडवाणी पर जो जूता चला वो और मामलों से बिलकुल अलग रहा। जहाँ पार्टी ही सर्वेसर्वा हो, वहां पार्टी के ही एक कार्यकर्ता द्वारा,पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर जूता फेंकना बिल्कुल नई घटना है। पार्टी को मानने और उसकी विचारधारा को ग्रहण करने में सालों का वक़्त लगता है, फिर क्या बात रही की सालों की यह विचारधारा एक जूते के तले सिमट गयी। सवाल सचमुच बहुत गंभीर है।
'भारतीय लोकतंत्र में जूता' महज असंतोष, क्रोध और क्षोभ का ही सूचक नहीं है। यह दिखाता है की जब लोकतंत्र के पहरेदार, 'लोक' को भूलकर, केवल सूने तंत्र की बात करेंगे तो लोक को आखिरकार संकेतों के रूप में जूते ही चलाने पड़ेंगे। ये शायद सीधे-सीधे नहीं लगेंगे लेकिन मीडिया कवरेज से ऐसी मारक क्षमता विकसित करेंगे जिसकी अनुगूँज हर कोने में सुनाई देगी।
मुन्तज़र-अल-ज़ैदी को दिया जाना चाहिए जिन्होंने पहली बार में ही ऐसा बेंचमार्क स्थापित किया की दुनिया दंग रह गयी। पहले तो लोग भौच्चके रह गए परन्तु हमेशा की तरह इस मीडिया प्रयोग को भी अपना लिया। फिर क्या था, 'बेन जिआबाओ, अरुंधती रॉय, पी. चिदंबरम और अब आडवानी' भी इस नए प्रयोग के दायरे में आ गए।
जूते के इन प्रकरणों से कुछ गंभीर सवाल निकलते हैं जिनपर विचार करना बहुत जरूरी है।
पहली बात यह की क्या कारण है की हर बार जूता निशाने से चूक गया? यह सवाल इसलिए भी अहम है की अगर कोई १०-२० फ़ुट की दूरी से जूता मारे और हर बार निशाना चूक जाये तो थोड़ा अटपटा सा लगता है। तो क्या इस जूता चलाने के पीछे सिर्फ सम्बंधित लोगों को आगाह मात्र करना था? वैसे हमे यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह 'पगड़ी उछालने' का अर्थ बहुत व्यापक होता है ठीक वैसे ही इस 'जूता फेंको' क्रांति का अर्थ बहुत बड़ा और गंभीर है।
सबसे पहला कारण तो निश्चित तौर पर असंतोष ही है। बुश कि इराक नीतियों से जनता आहत थी जिसका प्रतिनिधित्व मुन्तज़र-अल-ज़ैदी ने किया, अरुंधती रॉय के लेख से एक बड़ा तबका असहमत था जिसका प्रतिनिधित्व 'युवा' संगठन के एक नौजवान ने किया, सिख दंगों में न्याय नहीं मिलने से पूरा सिख समुदाय आहत था जिसका प्रतिनिधित्व जनरैल सिंह ने किया और बीजेपी पार्टी में फैले एक व्यापक असंतोष का प्रतिनिधित्व पावस अग्रवाल ने किया।
वस्तुत लोकतंत्र में फैलती गहरी असमानता, तंत्र से 'लोक' को अलग करने कि साज़िश और समाज में फैलते असुरक्षा के भाव ने लोगों को जड़ तक आहत और आक्रोशित किया है। इस आक्रोश का सैलाब मुंबई हमलों के बाद फूट पड़ा जिसका नेतृत्व भले ही खाते-पीते मध्यवर्ग ने किया परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसमें सबकी भागीदारी रही। लोकतंत्र का 'लोक' अब ऐसे मुहाने पर आ खड़ा है जहाँ से वो अब सिर्फ कड़े फैसले ही लेगा।
एक बात और आडवाणी पर जो जूता चला वो और मामलों से बिलकुल अलग रहा। जहाँ पार्टी ही सर्वेसर्वा हो, वहां पार्टी के ही एक कार्यकर्ता द्वारा,पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर जूता फेंकना बिल्कुल नई घटना है। पार्टी को मानने और उसकी विचारधारा को ग्रहण करने में सालों का वक़्त लगता है, फिर क्या बात रही की सालों की यह विचारधारा एक जूते के तले सिमट गयी। सवाल सचमुच बहुत गंभीर है।
'भारतीय लोकतंत्र में जूता' महज असंतोष, क्रोध और क्षोभ का ही सूचक नहीं है। यह दिखाता है की जब लोकतंत्र के पहरेदार, 'लोक' को भूलकर, केवल सूने तंत्र की बात करेंगे तो लोक को आखिरकार संकेतों के रूप में जूते ही चलाने पड़ेंगे। ये शायद सीधे-सीधे नहीं लगेंगे लेकिन मीडिया कवरेज से ऐसी मारक क्षमता विकसित करेंगे जिसकी अनुगूँज हर कोने में सुनाई देगी।
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
मीडिया- अपने ही घेरे में (१)
अगर लोगों से पूछा जाए की ओबामा के कुत्ते का नाम क्या है या कि अभी कौन सी हिरोइन ज्यादा चर्चा में है तो इन सवालों के जवाब देने के लिए शायद ही उन्हें सोचना पड़े। लेकिन सवाल को थोड़ा टेढ़ा कर दिया जाये, मसलन, अभी लैटिन अमेरिका में क्या हो रहा है या श्रीलंका की वर्तमान स्थिति क्या है तो लोग सर खुजाने लगेंगे। इस बात के लिए शायद लोग उतने जिम्मेवार नहीं हैं जितना कि मीडिया। लोगों को जो बात दिखाई जायेगी उन्हें वही बात याद रहेगी। कारण शायद वही है कि 'बो(ओबामा का कुत्ता)' और राखी सावंत के सामने लैटिन अमेरिका या श्रीलंका उतनी टीआरपी नहीं दे पाएंगे।
आज जब हर चीज़ पर आत्मचिंतन हो रहा है तो मीडिया को इससे अलग क्यों किया जाए? आज के इस दौर में जब ख़बर देने वाले ख़बर बनाने लगे हैं तो उनके चरित्र का मूल्यांकन क्यों न हो? पत्रकारिता के मिशन कि बात आउटडाटेड हो चुकी है, यह सच्चाई सभी लोग मान चुके हैं, परन्तु बची-खुची शर्म-हया और सामाजिक सरोकार को यूँ ही घोलकर पी जाना कहाँ कि बुद्धिमानी है?
आज मीडिया ज्यादा शक्तिशाली हो चुका है, लेकिन शक्ति के गरूर में वो यह बात भूलता जा रहा है कि " Great Power Comes With Great Responsibilities"।
श्रीलंका में सेना ने लिट्टे के खिलाफ़ फिर से मोर्चा खोल दिया है। हाल में वहां सेना और लिट्टे के संघर्ष में हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं. इसमें ज्यादातर निर्दोष ही शामिल हैं. यहाँ पर सवाल यह है कि इस खूनी लड़ाई कि सही तस्वीर कितने लोगों तक पहुची है? हमारे चैनलों और प्रिंट मीडिया ने इस संघर्ष कि कितनी जानकारी दी है? शायद कम ही लोग यह जानते होंगे कि वहां पर कई बच्चों के सर उड़ा दिए गये हैं, कारण सिर्फ इतना था कि वो तमिल बोलते थे. एक महिला को उसके ८ साल के गर्भ के साथ मार दिया गया. क्यों? सरकार और सेना सभी तमिलों को लिट्टे का समर्थक मान चुकी है. यह सच्चाई क्या सबको पता है? इस घटना कि कई वीभत्स तस्वीरें मीडिया में छुपाई गयीं हैं. लगभग २०,००० से ज्यादा नागरिक युद्ध में फंसे हुए हैं और बेघर हैं. आखिर क्यों? समुदाय के नाम पर हिटलर की गाथा को दुहराया जा रहा है और लोग इससे बेखबर हैं।
हमारी मीडिया ने इक्का-दुक्का ख़बरों को चलाकर अपने काम कि इत्तिश्री मान ली। संभवत श्रीलंकन सरकार पत्रकारों को अन्दर तक जाने कि इजाज़त नहीं दे रही, लेकिन सवाल यह है कि कहाँ गए वो खोजी पत्रकार जो कभी अपनी जान पर खेलकर खबरें लाते थे? क्या मीडिया अब अपने ही बनाए घेरे में कैद हो चुकी है? यहाँ मै एक चीज़ कहना चाहता हूँ कि जिस अरुंधती रॉय पर कश्मीर के खिलाफ़ लिखने पर जूता चलाया गया उन्होंने निश्चित तौर पर इस मामले में बहुत अच्छी रिपोर्टिंग की है।
मीडिया ने सच्चाई को दरकिनार कर फ़ालतू की खबरें दिखाईं थी, मसलन, तमिलनाडु में इस मुद्दे से फैले असंतोष, सरकार गिराने की धमकी आदि। ख़बरों को छिपाने के लिए वही हथकंडा अपनाया गया जो तहलका काण्ड के समय किया गया था। दरअसल आज मीडिया अपने लिए तय न्यूनतम पैमाने से भी नीचे जा गिरा है। सामाजिक सरोकार और जनहित की बात आज टीआरपी के विशाल बरगद के नीचे खड़े उस छोटे पौधे के समान है जिसका आस्तित्व बरगद के सामने बौना हो जाता है।
Dare to see more pictures .Contact me
at prakashkumarbadal@gmail.com
आज जब हर चीज़ पर आत्मचिंतन हो रहा है तो मीडिया को इससे अलग क्यों किया जाए? आज के इस दौर में जब ख़बर देने वाले ख़बर बनाने लगे हैं तो उनके चरित्र का मूल्यांकन क्यों न हो? पत्रकारिता के मिशन कि बात आउटडाटेड हो चुकी है, यह सच्चाई सभी लोग मान चुके हैं, परन्तु बची-खुची शर्म-हया और सामाजिक सरोकार को यूँ ही घोलकर पी जाना कहाँ कि बुद्धिमानी है?
आज मीडिया ज्यादा शक्तिशाली हो चुका है, लेकिन शक्ति के गरूर में वो यह बात भूलता जा रहा है कि " Great Power Comes With Great Responsibilities"।
श्रीलंका में सेना ने लिट्टे के खिलाफ़ फिर से मोर्चा खोल दिया है। हाल में वहां सेना और लिट्टे के संघर्ष में हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं. इसमें ज्यादातर निर्दोष ही शामिल हैं. यहाँ पर सवाल यह है कि इस खूनी लड़ाई कि सही तस्वीर कितने लोगों तक पहुची है? हमारे चैनलों और प्रिंट मीडिया ने इस संघर्ष कि कितनी जानकारी दी है? शायद कम ही लोग यह जानते होंगे कि वहां पर कई बच्चों के सर उड़ा दिए गये हैं, कारण सिर्फ इतना था कि वो तमिल बोलते थे. एक महिला को उसके ८ साल के गर्भ के साथ मार दिया गया. क्यों? सरकार और सेना सभी तमिलों को लिट्टे का समर्थक मान चुकी है. यह सच्चाई क्या सबको पता है? इस घटना कि कई वीभत्स तस्वीरें मीडिया में छुपाई गयीं हैं. लगभग २०,००० से ज्यादा नागरिक युद्ध में फंसे हुए हैं और बेघर हैं. आखिर क्यों? समुदाय के नाम पर हिटलर की गाथा को दुहराया जा रहा है और लोग इससे बेखबर हैं।
हमारी मीडिया ने इक्का-दुक्का ख़बरों को चलाकर अपने काम कि इत्तिश्री मान ली। संभवत श्रीलंकन सरकार पत्रकारों को अन्दर तक जाने कि इजाज़त नहीं दे रही, लेकिन सवाल यह है कि कहाँ गए वो खोजी पत्रकार जो कभी अपनी जान पर खेलकर खबरें लाते थे? क्या मीडिया अब अपने ही बनाए घेरे में कैद हो चुकी है? यहाँ मै एक चीज़ कहना चाहता हूँ कि जिस अरुंधती रॉय पर कश्मीर के खिलाफ़ लिखने पर जूता चलाया गया उन्होंने निश्चित तौर पर इस मामले में बहुत अच्छी रिपोर्टिंग की है।
मीडिया ने सच्चाई को दरकिनार कर फ़ालतू की खबरें दिखाईं थी, मसलन, तमिलनाडु में इस मुद्दे से फैले असंतोष, सरकार गिराने की धमकी आदि। ख़बरों को छिपाने के लिए वही हथकंडा अपनाया गया जो तहलका काण्ड के समय किया गया था। दरअसल आज मीडिया अपने लिए तय न्यूनतम पैमाने से भी नीचे जा गिरा है। सामाजिक सरोकार और जनहित की बात आज टीआरपी के विशाल बरगद के नीचे खड़े उस छोटे पौधे के समान है जिसका आस्तित्व बरगद के सामने बौना हो जाता है।
Dare to see more pictures .Contact me
at prakashkumarbadal@gmail.com
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
राजनीति बनाम सामाजिक कार्यकर्ता
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा मलिक ने वरुण गाँधी पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाए जाने का समर्थन किया है। रोमा मलिक सन् २००० से एक संस्था चला रही हैं जिसका नाम है- नेशनल फोरम ऑफ़ फॉरेस्ट पीपुल एंड फॉरेस्ट वोर्केर्स। इनकी संस्था का काम है लोगो में राजनितिक समझ को पैदा कर समाज में होने वाले भ्रष्टाचार को ख़त्म करना। बहरहाल, वरुण गाँधी पर यह कानून लगाया जाना उचित है या नहीं इसपर राजनीतिक विद्वान् पहले ही काफी टिपण्णी कर चुके हैं। यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के दृष्टिकोण में भी वरुण पर लगा यह प्रतिबन्ध सही है।
अगर हम सिर्फ रोमा जी के समर्थन की बात करें तो मामला सिर्फ दृष्टिकोण और अपने नज़रिए को प्रस्तुत करने जैसा प्रतीत होता है। यह सही है की कोई भी व्यक्ति समाज में अपनी निजी राय प्रस्तुत कर सकता है। परन्तु अगर उनके तर्क पर गौर किया जाये तो कुछ प्रश्न निकलकर सामने आते हैं। सबसे पहले उनका तर्क देखिए-
" वरुण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाए जाने का मैं समर्थन करती हूँ। बीजेपी के नेताओं को ऐसे कड़े कानूनों का पता चलना चाहिए जिसका वे समर्थन करते हैं। छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को ऐसे ही कानूनों के तहत लम्बे समय से जेल में रखा गया है। अब वरुण गाँधी पर जब रासुका लगा तो बीजेपी नेता घड़ियाली आंसू क्यों बहा रहे हैं?"
पहली नज़र में यह बयान किसी राजनीतिक पार्टी का लगता है। परन्तु एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने ऐसा बयान दिया है, सोचने लायक है। अब यहाँ ये प्रश्न उठते हैं कि कोई भी समाज एक मानवाधिकार कार्यकर्ता से क्या उम्मीदें कर सकता है? क्या वह कार्यकर्ता सिर्फ मनुष्यता के नाते लोगों के अधिकारों की बात करता है या वह पूर्वाग्रह ग्रसित भी होता है? सामाजिक द्वन्द और तेजी से बढ़ते मानवाधिकार हनन के इस दौर में क्या हम इनसे ज्यादा की अपेक्षा कर बैठे हैं? और एक यक्ष प्रश्न की, क्या ये कार्यकर्ता सिर्फ समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए ही मानवाधिकारों की दुहाई देते फिरते हैं? इन प्रश्नों पर विचार करना अब जरुरी हो गया है।
छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने विनायक सेन के साथ जो किया है वो बहुत दुखद और निंदनीय है। शायद ही कोई बीजेपी के इस कारगुजारी को सही कहेगा। परन्तु क्या रोमा जी सिर्फ इसी आधार पर, वरुण गाँधी के साथ हुए अन्याय को सही ठहरा सकती हैं? हो सकता है बीजेपी के लिए उनके मन में गहरा क्रोध हो और वो सही भी हो सकता है, परन्तु उसी पैमाने पर सभी चीजों को तौलना सही है? एक पार्टी के आधार पर उसके कार्यकर्ता के साथ हुए अन्याय को सही कहना बिलकुल ठीक नहीं है। मानवाधिकारों के हनन का फैसला मनुष्यता के आधार पर होता है, पार्टी के आधार पर नहीं। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें की रोमा जी पर भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा हुआ है। अपने साथ हुए अन्याय को देखकर भी वो अन्याय को समझ नहीं पा रहीं हैं।
रोमा जी को यह बताना चाहिए की वो मानवाधिकारों की जो लडाई लड़ रही हैं क्या उसके लिए सिर्फ़ मानव भर होना जरुरी नहीं है? या फिर किसी के आधिकारों को दिलाने के लिए वो उसकी पार्टी,धर्म आदि चीजों को भी देखती हैं। वरुण गाँधी ने जो कहा गलत था और रासुका लगाना उससे भी गलत। रोमा जी को भी यह जानना चाहिए की बतौर एक सामाजिक कार्यकर्ता, उनके लिए वरुण पहले एक आम इंसान हैं बीजेपी के उम्मीदवार बाद में।
अगर हम सिर्फ रोमा जी के समर्थन की बात करें तो मामला सिर्फ दृष्टिकोण और अपने नज़रिए को प्रस्तुत करने जैसा प्रतीत होता है। यह सही है की कोई भी व्यक्ति समाज में अपनी निजी राय प्रस्तुत कर सकता है। परन्तु अगर उनके तर्क पर गौर किया जाये तो कुछ प्रश्न निकलकर सामने आते हैं। सबसे पहले उनका तर्क देखिए-
" वरुण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाए जाने का मैं समर्थन करती हूँ। बीजेपी के नेताओं को ऐसे कड़े कानूनों का पता चलना चाहिए जिसका वे समर्थन करते हैं। छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को ऐसे ही कानूनों के तहत लम्बे समय से जेल में रखा गया है। अब वरुण गाँधी पर जब रासुका लगा तो बीजेपी नेता घड़ियाली आंसू क्यों बहा रहे हैं?"
पहली नज़र में यह बयान किसी राजनीतिक पार्टी का लगता है। परन्तु एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने ऐसा बयान दिया है, सोचने लायक है। अब यहाँ ये प्रश्न उठते हैं कि कोई भी समाज एक मानवाधिकार कार्यकर्ता से क्या उम्मीदें कर सकता है? क्या वह कार्यकर्ता सिर्फ मनुष्यता के नाते लोगों के अधिकारों की बात करता है या वह पूर्वाग्रह ग्रसित भी होता है? सामाजिक द्वन्द और तेजी से बढ़ते मानवाधिकार हनन के इस दौर में क्या हम इनसे ज्यादा की अपेक्षा कर बैठे हैं? और एक यक्ष प्रश्न की, क्या ये कार्यकर्ता सिर्फ समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए ही मानवाधिकारों की दुहाई देते फिरते हैं? इन प्रश्नों पर विचार करना अब जरुरी हो गया है।
छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने विनायक सेन के साथ जो किया है वो बहुत दुखद और निंदनीय है। शायद ही कोई बीजेपी के इस कारगुजारी को सही कहेगा। परन्तु क्या रोमा जी सिर्फ इसी आधार पर, वरुण गाँधी के साथ हुए अन्याय को सही ठहरा सकती हैं? हो सकता है बीजेपी के लिए उनके मन में गहरा क्रोध हो और वो सही भी हो सकता है, परन्तु उसी पैमाने पर सभी चीजों को तौलना सही है? एक पार्टी के आधार पर उसके कार्यकर्ता के साथ हुए अन्याय को सही कहना बिलकुल ठीक नहीं है। मानवाधिकारों के हनन का फैसला मनुष्यता के आधार पर होता है, पार्टी के आधार पर नहीं। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें की रोमा जी पर भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा हुआ है। अपने साथ हुए अन्याय को देखकर भी वो अन्याय को समझ नहीं पा रहीं हैं।
रोमा जी को यह बताना चाहिए की वो मानवाधिकारों की जो लडाई लड़ रही हैं क्या उसके लिए सिर्फ़ मानव भर होना जरुरी नहीं है? या फिर किसी के आधिकारों को दिलाने के लिए वो उसकी पार्टी,धर्म आदि चीजों को भी देखती हैं। वरुण गाँधी ने जो कहा गलत था और रासुका लगाना उससे भी गलत। रोमा जी को भी यह जानना चाहिए की बतौर एक सामाजिक कार्यकर्ता, उनके लिए वरुण पहले एक आम इंसान हैं बीजेपी के उम्मीदवार बाद में।
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
मनमोहन जी, ज़रा गौर फरमाइए.........
एक भारतीय जनता की तरफ से मनमोहन जी को कुछ सुझाव।
*** आपको दुबारा प्रधानमंत्री पद पर बैठाने की बात हो रही है। शायद आप भी मना नहीं ही करेंगे। अगर आप दुबारा प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो कृपया लोकसभा का चुनाव लड़कर आइये। इससे आपके आलोचकों का मुंह तो बंद होगा ही साथ ही साथ आप जनता को अपने ज्यादा करीब पाएंगे।
*** बुश के बाद अब आपने ओबामा से कहा है की भारतीय जनता आपको बहुत प्यार करती है। इसमें कितनी सच्चाई है आपको भी पता ही होगा. कूटनीति के चक्कर में भारतीय जनता की भावनाओं के साथ यह खेल ठीक नहीं है।
*** लोकसभा में आपने अपने सभी भाषण अँग्रेज़ी में दिए हैं। वहीँ दूसरी तरफ देश में दिए गए कुल भाषणों में ४९९ अँग्रेज़ी में और सिर्फ़ ५ हिंदी में हैं। हिंदी की इतनी तौहीन ठीक नहीं है।
उदाहरण के लिए आप फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को देखिये जो ज्यादा से ज्यादा भाषण अपनी भाषा में देते हैं।
*** अंत में, आपने महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने में भी ज्यादा रूचि नही दिखलाई।
-----आप निश्चित ही काफी ईमानदार छवि के नेता रहे हैं। अत्त आपसे अनुरोध है की इस लोकसभा चुनाव में इन मुद्दों पर ज़रा ईमानदारी से गौर फरमाइएगा।
एक भारतीय नागरिक
बादल
*** आपको दुबारा प्रधानमंत्री पद पर बैठाने की बात हो रही है। शायद आप भी मना नहीं ही करेंगे। अगर आप दुबारा प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो कृपया लोकसभा का चुनाव लड़कर आइये। इससे आपके आलोचकों का मुंह तो बंद होगा ही साथ ही साथ आप जनता को अपने ज्यादा करीब पाएंगे।
*** बुश के बाद अब आपने ओबामा से कहा है की भारतीय जनता आपको बहुत प्यार करती है। इसमें कितनी सच्चाई है आपको भी पता ही होगा. कूटनीति के चक्कर में भारतीय जनता की भावनाओं के साथ यह खेल ठीक नहीं है।
*** लोकसभा में आपने अपने सभी भाषण अँग्रेज़ी में दिए हैं। वहीँ दूसरी तरफ देश में दिए गए कुल भाषणों में ४९९ अँग्रेज़ी में और सिर्फ़ ५ हिंदी में हैं। हिंदी की इतनी तौहीन ठीक नहीं है।
उदाहरण के लिए आप फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को देखिये जो ज्यादा से ज्यादा भाषण अपनी भाषा में देते हैं।
*** अंत में, आपने महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने में भी ज्यादा रूचि नही दिखलाई।
-----आप निश्चित ही काफी ईमानदार छवि के नेता रहे हैं। अत्त आपसे अनुरोध है की इस लोकसभा चुनाव में इन मुद्दों पर ज़रा ईमानदारी से गौर फरमाइएगा।
एक भारतीय नागरिक
बादल
बुधवार, 1 अप्रैल 2009
क़साब के बहाने कुछ सवाल
मुंबई हमलों के दोषी क़साब की तरफ से मुकदमा लड़ने के लिए नियुक्त वकील 'अंजलि वाघमारे' के घर पर जिस तरह पथराव किया गया, इससे कुछ सवाल निकलकर सामने आएँ हैं। गौरतलब है की वकीलों ने यह केस लड़ने से मना कर दिया था जिसके बाद विशेष अदालत ने इस केस में उन्हें
क़साब की तरफ से नियुक्त किया है। अपने घर पर हुए इस पथराव के बाद उन्होंने कहा है की उन्हें एक दिन का समय चाहिए, जिसमें वो यह फैसला कर सकें की वो यह केस लडेंगी या नहीं।
भारत एक लोकतान्त्रिक देश है और यहाँ पर सारी प्रक्रिया का संचालन लोकतंत्र के अनुसार होता है। न्यायपालिका इस लोकतंत्र की उच्चतम संस्था है, जो शायद अभी तक दागदार नहीं हुई है। परन्तु इस घटना ने हमारे लोकतंत्र के सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। यह बहस अब होनी ही चाहिए की क़साब जैसे आतंकियों को वकील मिले या नहीं? निश्चित तौर पर क़साब घृणा का हकदार है और होना भी चाहिए,परन्तु क्या सिर्फ उसी घृणा के कारण हम अपनी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ही कुचल डालें? लोकतत्र में हर व्यक्ति को, चाहे वो अपराधी ही क्यों न हो, पूरा हक है की वह अपने बचाव में वकील रखे। फिर कसाब के लिए यह दुहरा पैमाना क्यों?
कुछ लोग यह सवाल कर रहें हैं की उसने देश की अस्मिता को चोट पहुचाई है, मुंबई नगरी को दो दिनों तक कैद सा कर दिया था, और सबसे बड़ी दरिंदगी की २०० लोगों की हत्या में वह शामिल है। इन सबके बावजूद क्या उसका केस लड़ना सही है? मै बोलूँगा जी बिलकुल उचित है। जब आपके पास उसके खिलाफ सारे सबूत हैं और आपको पता है की वो बचेगा नहीं तो फिर घबराने या उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं होनी चाहिए। यह लिख लीजिये की कोई भी वकील लाख कोशिशों के बावजूद उसे बचा नहीं पायेगा। अगर आप उसे न्यायिक प्रक्रिया के तहत सजा देंगे तो भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका की छवि मजबूत ही होगी और वह पूरे विश्व समुदाय के लिए एक मिसाल कायम करेगी। सिर्फ भावनावों के आधार पर देश चलता तो फिर कहना ही क्या था! अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर अपराधियों को जिन्दा पकड़ने की कोई जरुरत ही नहीं है। बस देखिये और मार दीजिये, परन्तु फिर बाद में मानवाधिकारों की दुहाई मत दीजियेगा।
उदाहरण के तौर पर निठारी कांड के अभियुक्तों, मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेन्द्र कोली को रखा जा सकता है। इनका अपराध भी बहुत संगीन था, शायद भारत में अपनी तरह का पहला केस था। इनका केस भी किसी वकील ने लड़ा(नाम सार्वजनिक नहीं किया गया है) लेकिन फिर भी वो बच नहीं पायें। उन्हें मौत की सजा दी गयी जो बिलकुल सही है। उनका वकील न उन्हें बचा सकता था न बचा पाया। फिर कसाब के साथ ऐसा क्यों हो? मै भी चाहता हूँ की क़साब को सजा हो और वो भी मौत की। लेकिन हो तो कानून के तहत। जहाँ हमारी विधायिका और कार्यपालिका पहले ही दागदार हो चुकीं हैं वहां न्यायपालिका पर दाग न लगे तो ही बेहतर है।
बहरहाल, वाघमारे के घर पर जिन्होंने हमला किया(शायद शिवसेना के लोग) क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए की देश में सैकडों ऐसे नेता हैं जो प्रमाणिक तौर पर अपराधी हैं, फिर आप इनके खिलाफ़ क्यों नहीं कुछ करते? देश को इनके हाथों बर्बाद करवा रहें हैं और ये भी दीमक की तरह देश को चाटते जा रहें हैं। वहीँ जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर हमला हुआ तो वे कहाँ सो रहे थे? आपने क्षेत्रवाद की गन्दी राजनीति की और एक मासूम का एनकाउन्टर कर काफी खुश हुए। क्या वो अपराध नहीं था? आप जब अपने ही भाई लोगों को मारेंगे तो दूसरा आपको क्यों न मारे? जब अपने ही घर में आग लगी हो तो बाहर वाले रोटियां सेकेंगे ही।
लोकतंत्र और सत्ता का यह खेल समय-समय पर खेला जाता रहा है और शायद खेला जाता रहेगा। लोगों को यह समझना होगा की न्यायपालिका का स्थान भावनाओं से ऊपर है और न्यायपालिका को भी इन भावनाओं की कद्र करते हुए क़साब को उचित सजा देनी होगी। निश्चित तौर पर वो सजा मौत से कम नहीं होनी चाहिए।
क़साब की तरफ से नियुक्त किया है। अपने घर पर हुए इस पथराव के बाद उन्होंने कहा है की उन्हें एक दिन का समय चाहिए, जिसमें वो यह फैसला कर सकें की वो यह केस लडेंगी या नहीं।
भारत एक लोकतान्त्रिक देश है और यहाँ पर सारी प्रक्रिया का संचालन लोकतंत्र के अनुसार होता है। न्यायपालिका इस लोकतंत्र की उच्चतम संस्था है, जो शायद अभी तक दागदार नहीं हुई है। परन्तु इस घटना ने हमारे लोकतंत्र के सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। यह बहस अब होनी ही चाहिए की क़साब जैसे आतंकियों को वकील मिले या नहीं? निश्चित तौर पर क़साब घृणा का हकदार है और होना भी चाहिए,परन्तु क्या सिर्फ उसी घृणा के कारण हम अपनी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ही कुचल डालें? लोकतत्र में हर व्यक्ति को, चाहे वो अपराधी ही क्यों न हो, पूरा हक है की वह अपने बचाव में वकील रखे। फिर कसाब के लिए यह दुहरा पैमाना क्यों?
कुछ लोग यह सवाल कर रहें हैं की उसने देश की अस्मिता को चोट पहुचाई है, मुंबई नगरी को दो दिनों तक कैद सा कर दिया था, और सबसे बड़ी दरिंदगी की २०० लोगों की हत्या में वह शामिल है। इन सबके बावजूद क्या उसका केस लड़ना सही है? मै बोलूँगा जी बिलकुल उचित है। जब आपके पास उसके खिलाफ सारे सबूत हैं और आपको पता है की वो बचेगा नहीं तो फिर घबराने या उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं होनी चाहिए। यह लिख लीजिये की कोई भी वकील लाख कोशिशों के बावजूद उसे बचा नहीं पायेगा। अगर आप उसे न्यायिक प्रक्रिया के तहत सजा देंगे तो भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका की छवि मजबूत ही होगी और वह पूरे विश्व समुदाय के लिए एक मिसाल कायम करेगी। सिर्फ भावनावों के आधार पर देश चलता तो फिर कहना ही क्या था! अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर अपराधियों को जिन्दा पकड़ने की कोई जरुरत ही नहीं है। बस देखिये और मार दीजिये, परन्तु फिर बाद में मानवाधिकारों की दुहाई मत दीजियेगा।
उदाहरण के तौर पर निठारी कांड के अभियुक्तों, मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेन्द्र कोली को रखा जा सकता है। इनका अपराध भी बहुत संगीन था, शायद भारत में अपनी तरह का पहला केस था। इनका केस भी किसी वकील ने लड़ा(नाम सार्वजनिक नहीं किया गया है) लेकिन फिर भी वो बच नहीं पायें। उन्हें मौत की सजा दी गयी जो बिलकुल सही है। उनका वकील न उन्हें बचा सकता था न बचा पाया। फिर कसाब के साथ ऐसा क्यों हो? मै भी चाहता हूँ की क़साब को सजा हो और वो भी मौत की। लेकिन हो तो कानून के तहत। जहाँ हमारी विधायिका और कार्यपालिका पहले ही दागदार हो चुकीं हैं वहां न्यायपालिका पर दाग न लगे तो ही बेहतर है।
बहरहाल, वाघमारे के घर पर जिन्होंने हमला किया(शायद शिवसेना के लोग) क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए की देश में सैकडों ऐसे नेता हैं जो प्रमाणिक तौर पर अपराधी हैं, फिर आप इनके खिलाफ़ क्यों नहीं कुछ करते? देश को इनके हाथों बर्बाद करवा रहें हैं और ये भी दीमक की तरह देश को चाटते जा रहें हैं। वहीँ जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर हमला हुआ तो वे कहाँ सो रहे थे? आपने क्षेत्रवाद की गन्दी राजनीति की और एक मासूम का एनकाउन्टर कर काफी खुश हुए। क्या वो अपराध नहीं था? आप जब अपने ही भाई लोगों को मारेंगे तो दूसरा आपको क्यों न मारे? जब अपने ही घर में आग लगी हो तो बाहर वाले रोटियां सेकेंगे ही।
लोकतंत्र और सत्ता का यह खेल समय-समय पर खेला जाता रहा है और शायद खेला जाता रहेगा। लोगों को यह समझना होगा की न्यायपालिका का स्थान भावनाओं से ऊपर है और न्यायपालिका को भी इन भावनाओं की कद्र करते हुए क़साब को उचित सजा देनी होगी। निश्चित तौर पर वो सजा मौत से कम नहीं होनी चाहिए।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)