गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हमारी व्यवस्था जिन्हें इडियट्स कहती है...


समय के साथ शब्दों के अर्थ बदलते हैं किसी का अर्थविस्तार तो किसी का अर्थसंकोच। आज कोई जब बुद्धिजीवी बोलता है तो एक ऐसी छवि बनती है जिसमें पर्याप्त जटिलता, कुटिलता तथा बने बनाए रास्तों पर चलने वाले मुसाफिर जैसे गुण हों। वहीं इडियट का अर्थविस्तार हो गया है। दरअसल यह अर्थविस्तार आश्चर्यचकित नहीं करता है क्योंकि हमारी व्यवस्था कुछ निर्धारित मानदंडो के आधार पर ही लोंगो को इडियट घोषित करती है। लेकिन ये मानदंड कितने विवेकशील हैं महत्वपूर्ण बात यह है।
जिसे हम इडियट कहते हैं उसमें एक किस्म का पागलपन होता है, चीजों को खारिज करने का माद्दा होता है। जिसे हम पागलपन कह रहे हैं वही व्यक्ति को रचनात्मक बनाता है और खारिज करने का माद्दा, मौलिक । यह रचनात्मकता और मौलिकता स्थापित मानदंडो को चुनौती देती है जिसे लोग डाइजेस्ट करने में असहज महसूस करते हैं। लोगों को लगता है कि यह बहक गया है और तमाम तरह की चाबुकें लगायी जाने लगती हैं। उत्तर आधुनिक विचारधारा इसी चाबुक को खारिज करती है और पागलपन को पर्याप्त स्पेस देती है, पनपने के लिए।
राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ इन्हीं चाबुकों को चुनौती देती है तथा पागलपन को परिपक्व होने तक उचित माहौल। रणछोड़ दास ( आमिर खान ) जीवन के स्टीरोयोटाइप आपाधापी के रण को छोड़ता है न कि अपनी मौलिक रचनात्मक और नवयुवा सुलभ जिज्ञासाओं और कौतुहलों के रण को। वह ज्ञान की जटिलताओं में नहीं उलझता है बल्कि मानवीय गतिविधियों से ही ज्ञान को आत्मसात करता है। रणछोड़ दास खुद को समझता है कि उसकी असली और मौलिक शक्ति क्या है? उसे हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का अप्रासांगिक और गैररचनात्मक दबाव कतई पसंद नहीं है। वह अपने दोस्त राजु (शरमन जोशी ) और फरहान (आर माधवन) को भी असली क्षमता से रूबरू करवाता है। राजू एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का हिस्सा है। एक तरफ वह परिवार की आर्थिक मजबूरी के कारण तथा दूसरी तरफ अप्रासंगिक हो चुकी शैक्षणिक व्यवस्था के अमानुषिक दबाव के कारण खुल कर कुछ नहीं कर पाता है।
फरहान की रूचि तथा दक्षता फोटोग्राफी में है जबकि माता-पिता उसे इंजीनियर बनाने पर तुले हैं। फरहान फिल्म में एक जगह कहता है कि ‘साला मुझसे किसी ने पूछा तक नहीं कि तुम्हें क्या बनना है?’ क्या हमारे समाज में यह स्थिति नहीं है कि बच्चे के जन्म लेते ही अभिभावक डॉक्टर, इंजीनियर बनाने का दबाव बनाने लगते हैं। आज हमारे समाज में यह हकीकत है कि बच्चों से अभिभावकों की अपेक्षाएं आसामान छूती हैं। इनकी अपेक्षाओं को एक हद तक उनकी मजबूरियों से जस्टीफाई कर सकते हैं, लेकिन यह बच्चों पर कहर बनकर टूटती है। उनका बचपना, मौलिकता और रचनात्मकता समय के साथ कुंद होते जाते हैं और अंततः भेड़ चाल में शामिल हो जाते हैं।
चूंकि सिनेमा एक दृश्य माध्यम है इसलिए यहां संवाद से ज्यादा दृश्य और भंगिमाओं की मांग होती है। य़दि 44 साल के आमिर खान इस फिल्म में 22 साल के रणछोड़ दास के चरित्र में पूरी तरह से फिट बैठते हैं तो अपनी भंगिमाओं के कारण। आमिर खान एक काबिल अभिनेता हैं जो इससे पूर्व की फिल्में ‘तारे जमीं’ पर और ‘लगान’ में अपनी काबिलीयत दिखा चुके हैं।
निर्देशक राजकुमार हिरानी अब तक ‘थ्री इडियट्स’ सहित तीन फिल्में बना चुके हैं- ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ इससे पहले की दो फिल्में हैं। दोनों अपने आप में कामयाब और काबिलेतारीफ। ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री इडियट्स’ भारतीय एजुकेशन सिस्टम को कटघरे में खड़ी करती हैं और कई सवाल छोड़ जाती हैं जिसका जबाव अब तक हमारी व्यवस्था के पास नहीं है। राजकुमार हिरानी कहते हैं कि ‘थ्री इडियट्स’ केवल शैक्षणिक व्यवस्था की विसंगतियों पर ही नहीं बल्कि अभिभावकों की गैर वाजिब अपेक्षाओं की भी खबर लेती है।
‘थ्री इडियट्स’ को देखते हुए आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ फिल्म बरबस याद आती है, लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है यह फिल्म उच्च शिक्षा को कटघरे में लाती है जबकि ‘तारे जमीं पर’ प्राथमिक शिक्षा को। हिरानी ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के माध्यम से दर्शकों को जादू की झप्पी दिलाते हैं तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के माध्यम से नए संदर्भ में गांधीगिरी को परोसते हैं वहीं ‘थ्री इडियट्स’ के माध्यम से आल ईज वेल की मौलिक परिकल्पना पेश करते हैं। यह फिल्म बड़े जोरदार तरीके से बताती है कि किताब से ज्ञान नहीं मिलता है बल्कि ज्ञान से किताबें लिखी जाती हैं।

1 टिप्पणी:

डॉ .अनुराग ने कहा…

एक सही तरीके से देखने का नजरिया .शायद हॉस्टल में रहकर हमने भी यही जाना था बस शिकायत यही है के बीच बीच में कही भटक गए है...फिल्म को ओर बेहतर बनाया जा सकता था ....कही कही बाज़ार की आवश्यकता इस फिल्म पर अधिक प्रभावी दिखती है