रविवार, 17 जनवरी 2010

राजनीति में एक अध्याय का अंत


दशक के अंतिम साल कि सबसे दुखद घटना। माकपा के सबसे वरिष्ठ नेता ज्योति बसु नहीं रहे। इनके बारे में अभी कुछ लिखने का दिल नहीं कर रहा क्योंकि आंखे आंसुओं से भीगी हैं और दिल व्यथित। चर्चा अगली बार करेंगे।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हमारी व्यवस्था जिन्हें इडियट्स कहती है...


समय के साथ शब्दों के अर्थ बदलते हैं किसी का अर्थविस्तार तो किसी का अर्थसंकोच। आज कोई जब बुद्धिजीवी बोलता है तो एक ऐसी छवि बनती है जिसमें पर्याप्त जटिलता, कुटिलता तथा बने बनाए रास्तों पर चलने वाले मुसाफिर जैसे गुण हों। वहीं इडियट का अर्थविस्तार हो गया है। दरअसल यह अर्थविस्तार आश्चर्यचकित नहीं करता है क्योंकि हमारी व्यवस्था कुछ निर्धारित मानदंडो के आधार पर ही लोंगो को इडियट घोषित करती है। लेकिन ये मानदंड कितने विवेकशील हैं महत्वपूर्ण बात यह है।
जिसे हम इडियट कहते हैं उसमें एक किस्म का पागलपन होता है, चीजों को खारिज करने का माद्दा होता है। जिसे हम पागलपन कह रहे हैं वही व्यक्ति को रचनात्मक बनाता है और खारिज करने का माद्दा, मौलिक । यह रचनात्मकता और मौलिकता स्थापित मानदंडो को चुनौती देती है जिसे लोग डाइजेस्ट करने में असहज महसूस करते हैं। लोगों को लगता है कि यह बहक गया है और तमाम तरह की चाबुकें लगायी जाने लगती हैं। उत्तर आधुनिक विचारधारा इसी चाबुक को खारिज करती है और पागलपन को पर्याप्त स्पेस देती है, पनपने के लिए।
राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ इन्हीं चाबुकों को चुनौती देती है तथा पागलपन को परिपक्व होने तक उचित माहौल। रणछोड़ दास ( आमिर खान ) जीवन के स्टीरोयोटाइप आपाधापी के रण को छोड़ता है न कि अपनी मौलिक रचनात्मक और नवयुवा सुलभ जिज्ञासाओं और कौतुहलों के रण को। वह ज्ञान की जटिलताओं में नहीं उलझता है बल्कि मानवीय गतिविधियों से ही ज्ञान को आत्मसात करता है। रणछोड़ दास खुद को समझता है कि उसकी असली और मौलिक शक्ति क्या है? उसे हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का अप्रासांगिक और गैररचनात्मक दबाव कतई पसंद नहीं है। वह अपने दोस्त राजु (शरमन जोशी ) और फरहान (आर माधवन) को भी असली क्षमता से रूबरू करवाता है। राजू एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का हिस्सा है। एक तरफ वह परिवार की आर्थिक मजबूरी के कारण तथा दूसरी तरफ अप्रासंगिक हो चुकी शैक्षणिक व्यवस्था के अमानुषिक दबाव के कारण खुल कर कुछ नहीं कर पाता है।
फरहान की रूचि तथा दक्षता फोटोग्राफी में है जबकि माता-पिता उसे इंजीनियर बनाने पर तुले हैं। फरहान फिल्म में एक जगह कहता है कि ‘साला मुझसे किसी ने पूछा तक नहीं कि तुम्हें क्या बनना है?’ क्या हमारे समाज में यह स्थिति नहीं है कि बच्चे के जन्म लेते ही अभिभावक डॉक्टर, इंजीनियर बनाने का दबाव बनाने लगते हैं। आज हमारे समाज में यह हकीकत है कि बच्चों से अभिभावकों की अपेक्षाएं आसामान छूती हैं। इनकी अपेक्षाओं को एक हद तक उनकी मजबूरियों से जस्टीफाई कर सकते हैं, लेकिन यह बच्चों पर कहर बनकर टूटती है। उनका बचपना, मौलिकता और रचनात्मकता समय के साथ कुंद होते जाते हैं और अंततः भेड़ चाल में शामिल हो जाते हैं।
चूंकि सिनेमा एक दृश्य माध्यम है इसलिए यहां संवाद से ज्यादा दृश्य और भंगिमाओं की मांग होती है। य़दि 44 साल के आमिर खान इस फिल्म में 22 साल के रणछोड़ दास के चरित्र में पूरी तरह से फिट बैठते हैं तो अपनी भंगिमाओं के कारण। आमिर खान एक काबिल अभिनेता हैं जो इससे पूर्व की फिल्में ‘तारे जमीं’ पर और ‘लगान’ में अपनी काबिलीयत दिखा चुके हैं।
निर्देशक राजकुमार हिरानी अब तक ‘थ्री इडियट्स’ सहित तीन फिल्में बना चुके हैं- ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ इससे पहले की दो फिल्में हैं। दोनों अपने आप में कामयाब और काबिलेतारीफ। ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री इडियट्स’ भारतीय एजुकेशन सिस्टम को कटघरे में खड़ी करती हैं और कई सवाल छोड़ जाती हैं जिसका जबाव अब तक हमारी व्यवस्था के पास नहीं है। राजकुमार हिरानी कहते हैं कि ‘थ्री इडियट्स’ केवल शैक्षणिक व्यवस्था की विसंगतियों पर ही नहीं बल्कि अभिभावकों की गैर वाजिब अपेक्षाओं की भी खबर लेती है।
‘थ्री इडियट्स’ को देखते हुए आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ फिल्म बरबस याद आती है, लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है यह फिल्म उच्च शिक्षा को कटघरे में लाती है जबकि ‘तारे जमीं पर’ प्राथमिक शिक्षा को। हिरानी ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के माध्यम से दर्शकों को जादू की झप्पी दिलाते हैं तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के माध्यम से नए संदर्भ में गांधीगिरी को परोसते हैं वहीं ‘थ्री इडियट्स’ के माध्यम से आल ईज वेल की मौलिक परिकल्पना पेश करते हैं। यह फिल्म बड़े जोरदार तरीके से बताती है कि किताब से ज्ञान नहीं मिलता है बल्कि ज्ञान से किताबें लिखी जाती हैं।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

मूल्यविहीन होती शिक्षा प्रणाली


हाल के दिनों में शिक्षा को लेकर हर तरफ काफी हो-हल्ला मचाया जा रहा है, शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों की सलाह पर अमल करने की बात कही जा रही है। ऐसा प्रतित हो रहा है मानो अचानक से कोई संजीवनी हाथ लग गई हो! भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रसारित और प्रचलित किया जा रहा है उसके कई पक्षों में सुधार करने की आवश्यकता है। मसलन हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली और उसकी व्यवस्था में इतनी खामियाँ व्याप्त है कि उसे दूर किए बगैर किसी नए सुधार की बात करना ठीक उसी तरह होगा जैसे किसी एक मर्ज का इलाज किए बगैर नए मर्ज की दवा ढ़ूँढ़ने में लग जाना। आज हमारे नीति-निर्धारक शिक्षा व्यवस्था में जिस सुधार की बातें करते नहीं अघाते हैं उसमें व्यवसायिकता इतनी हावी होती जा रही है कि भेदभाव, महिला हिंसा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे समाज के गंभीर मुद्दों पर बात करने का समय ही नहीं है। यह सभी बातें जैसे दोयम दर्जे की बनकर रह गई हैं। नतीजतन बच्चों को घरों में माता-पिता से समय के अभाव के कारण बात करने का मौका नहीं रहता और स्कूलों में पढ़ाई का बोझ किसी को भी इस ओर सोचने की फुर्सत ही नहीं देता। भारी-भरकम सिलेबस का दबाव, परीक्षा, अंकों और डिवीजन की चूहा-दौड़ में चाहे-अनचाहे व्यक्तित्व के विकास की बहुत सी समस्याएं अनसुलझी रह जाती हैं। यह दबाव निराशा, भावनात्मक कमजोरियों, अपराधों के रूप में फूटता है जिसकी वजह से बच्चों में नशाखोरी, आत्महत्या जैसे अपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं।
समस्या सिर्फ सिलेबस की ही नहीं है, यह तो समस्या का सिर्फ एक पहलू है। प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों की हालत आज खस्ताहाल बनी हुई है। प्राथमिक शिक्षा का तो यह आलम है कि शिक्षकों की जगह ऐसे अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में बच्चों के भविष्य को संवारने की जिम्मेवारी दी जा रही है जो न तो मानक योग्यता रखते हैं और न शिक्षण कार्य में उनकी रुचि या प्रतिबद्धता है । शिक्षक जिसे कभी गुरु कह कर सर्वोच्च पदवी दी जाती थी अब वह कहीं पर शिक्षा-मित्र तो कहीं कांट्रेक्ट-टीचर के उप नामों से जाना जाता है । एक तरफ तो प्राथमिक शिक्षा का धड़ल्ले से निजीकरन कर बड़े शहरों में स्कूलों को आलीशान होटलों की तर्ज पर ढ़ाला जा रहा है जहाँ पढ़ाई से ज्यादा विलासिता पर खर्च किया जाता है। दूसरी तरफ गांवो, छोटे-शहरों और कस्बों के सरकारी स्कूलों की शिक्षा पर निर्भर बच्चों को जमीन पर बैठने के लिए दरी तक नसीब नहीं होती। बात सिर्फ प्राथमिक शिक्षा की बदहाली की नहीं है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तो विषमता की खाई और गहरी हो चुकी है। हमारे पास तथाकथित ‘गर्व’ करने के लिए आई.आई.टी और एम्स जैसे संस्थान तो हैं मगर इनकी संख्या ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान है। हमारे यहाँ बंगलुरू जैसे शहरों में हर गली-नुक्कड़ पर थोक के भाव में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल चुके हैं जहाँ के पढ़ाई के स्तर की सिर्फ कल्पना हीं की जा सकती है। आर्थिक उदारवाद के इस दौर में आज देशभर में शिक्षा की दुकानें खुल गई हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियां सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को तिरष्कृत कर निजी स्कूलों और शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने वाली हैं । निजी स्कूलों को दिए जा रहे बढावों और महिमा-मंडन से शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है। सरकार गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर निजी शिक्षण-संस्थानों को बढ़ावा तो देती है लेकिन सरकारी संस्थानों को उनकी जीर्ण-शिर्ण अवस्था में हीं रेंगते रहने देती है। हमारी विश्वविख्यात नालंदा और तक्षशिला की परंपरागत शैक्षिक प्रणाली धवस्त होती जा रही है और आगे की पीढियों को सिर्फ पेशेवर कर्मी बनाने की बात की जा रही है ना कि जिम्मेवार नागरिक।