कुछ घाव ऐसे होते हैं जो कभी नहीं भरते हैं। वक़्त इन घावों पर मरहम लगाकर इनकी टीस कुछ कम करने की कोशिश जरूर करता है लेकिन दर्द की स्मृतियों को भुला पाना क्या इतना आसन होता है? भारत-पाकिस्तान विभाजन का घाव तो पूरे देश को मालूम है लेकिन इस घाव का असली दर्द तो इनको झेलने वाले ही जानते हैं। शायद इसी दर्द को बयां करती है असगर वजाहत द्वारा लिखित नाटक "जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्या ही नई"।
असगर वजाहत लिखित इस नाटक के बीस साल पूरे होने पर श्रीराम सेंटर में इसका विशेष प्रदर्शन किया गया। गौरतलब है की आज से बीस साल पहले हबीब तनवीर ने इसी रंगमंडल के साथ इस नाटक को पहली बार मंचित किया था। यह नाटक एक उर्दू पत्रकार के यात्रा संस्मरण से प्रेरित है जिसमें भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय लाहौर में अकेली बच गयी एक हिन्दू बुढ़िया की दास्तान है। विभाजन और अपनी जमीन से अलग होने का दर्द नाटक के केंद्रबिंदु हैं और धर्म, उन्माद, और भाईचारे का धीरे-धीरे अंकुरित होता बीज इसके आसपास घूमते अनेक ध्रुव। वैसे ध्रुव जिनका मिलन कहीं सुखद है तो कहीं अत्यंत दुखद। यह केंद्रबिंदु और इसके विभिन्न ध्रुवों को मिलाकर एक ऐसी कथा का निर्माण होता जो इतिहास के संभवतः सबसे बड़े विस्थापन का जीवंत चित्र उकेरने में कामयाब होती है।
विभाजन पर चाहे 'कितने पाकिस्तान', 'गर्म हवा', 'पिंजर' या फिर 'तमस' किसी की बात की जाए तो फिर भी 'जिस लाहौर नई देख्या' को देखने का अपना अलग ही अनुभव है। माई की भूमिका में शोभा वर्मा, पहलवान के अभिनय में अतुल जस्सी और नासिर काज़मी के चढ़ते -उतरते संवादों और अभिनय के जरिये आप लगभग दो घंटे तक बिलकुल मंत्रमुग्ध से बैठे रहेंगे। कहानी में मानवीय संवेदनाओं, धर्म की अधूरी समझ के कारण उपजी धर्मान्धता और अपने मूल जड़ से कटने की व्यथा को चंद घंटों में बांधने में यह नाटक बिलकुल सफल हुआ है। नासिर काज़मी के हालात के अनुसार नाटक में बोले गए शेर मानवीय अंतर्द्वंद के कई अनछुए पहलुओं को बड़ी खूबसूरती के साथ तराशकर बाहर निकालते हैं। विषय पूरी तरह गंभीर है लेकिन कहीं-कहीं हास्य रस वातावरण को बोझिल होने से बचाता है।
यह नाटक वर्तमान सन्दर्भ में हमसे कई सवाल पूछता हुआ सा मालूम पड़ता है। मसलन, क्या धर्म के आगे मानवता की तिलांजलि देना उचित है। अलग-अलग धर्म क्या सिर्फ उसी एक महान सत्ता को नहीं मानते जो अमूर्त है। अपने मूल जड़ों से कटकर क्या आदमी ज्यों का त्यों बना रह सकता है और सबसे अहम् सवाल की क्या विभाजन की त्रासदी को भूलकर हम मिलकर नहीं रह सकते और सभी धर्मों से बढ़कर क्या कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसमे सभी बराबर हो। हाँ एक धर्म ऐसा है, और वो है मानवता का धर्म। चलते-चलते एक गाना याद आ रहा है " पंछी नदियाँ पवन के झोकें, कोई सरहद ना इन्हे रोके"।
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
शनिवार, 24 अक्तूबर 2009
पहले पैमाना तो निर्धारित करें कपिल सिब्बल
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में बैठने के लिए बारहवीं कक्षा में कम से कम 80 प्रतिशत अंक लाने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म दिया है। हालांकि अपनी कही बात पर इतनी तीखी प्रतिक्रियाएँ आने पर उन्होने झट से सफाई भी पेश कर दिया। अपनी बात को बदलते हुए उन्होनें कहा है कि विशेषज्ञों की समीति अच्छी तरह विचार करने के बाद यह तय करेगी कि न्यूनतम अंक क्या होंगे? कपिल सिब्बल के अनुसार ऐसा करने से छात्र 12वीं की बोर्ड परीक्षा को गंभीरता से लेंगे और आईआईटी के साथ अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश के लिए कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कोचिंग संस्थानों पर अंकुश लगेगा । विद्यार्थियों को नंबरों की अंधी दौड़ से बचाने के लिए दसवीं में ग्रेडिंग सिस्टम लाए जाने पर तमाम तरह के तर्क दिए गए थे और इस कदम पर वाहवाही भी लूटी गई थी पर आईआईटी प्रवेश परीक्षा के मामले में वो सारी बातें क्यों भुला दी गईं? एक तरफ तो हम 10वीं के छात्रों को नंबरों की अंधी दौड़ से बचाना चाहते हैं, दूसरी तरफ 12वीं के छात्रों को इसी दौड़ में क्यों झोंक रहे हैं? देश भर में इसके विरोध में स्वर उठने लगे हैं, खासतौर से बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के छात्र और शिक्षा से जुड़े लोग इस प्रस्ताव से आगबबूला हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 80 प्रतिशत या इससे अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है क्योंकि इन राज्यों में 12वीं की परीक्षा का स्तर बहुत कठिन होता है और 12वीं के साथ 11वीं के प्रश्न भी पूछे जाते हैं। दूसरी तरफ सीबीएसई में थोक के भाव में 80 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाले छात्र मिल जाते हैं । वैसे भी जब देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग बोर्ड हैं और पाठ्यक्रम में भी आकाश और पाताल का अंतर है तब 80 प्रतिशत अंकों का ऐसा फरमान थोपना समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती है। इन बे सिर-पैर की बातों और अंकों की इस अँधी दौर में गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थि पीछे छूटते जाएँगे और उनकी प्रतिभा का कोई मोल नहीं रह जाएगा।
सरकार आईआईटी और इसी स्तर के सभी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण देती है मगर 80 प्रतिशत अंकों की बाध्यता का प्रभाव क्या उन लोगों पर नहीं पड़ेगा? लाखों विद्यार्थियों का आईआईटी में जाने का सपना चकनाचूर हो जाएगा। ऐसे विद्यार्थि जिनके पास अपनी कड़ी मेहनत के अलावा न तो सीबीएसई बोर्ड जैसी चमक-धमक होती है और ना ही उतनी सुविधाएँ। अगर विद्यार्थि इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य पेशेवर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण में जाते हैं तो यह शिक्षा व्यवस्था की खामी का परिणाम है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की गुणवत्ता को बनाए रखना जरूरी है मगर साथ ही यह सुनिश्चित करना भी सरकार का ही दायित्व है कि इसमें प्रवेश पाने वाले समाज के सभी वर्गो से हों। किसी एक परीक्षा के आधार पर योग्यता को मापना उचित नहीं है।
अगर इस तरह का कोई काम करना भी है तो इसे निष्पक्ष रूप से तभी किया जा सकता है जब सभी राज्यों में एक ही बोर्ड हो उनके पाठ्यक्रम में समानता हो और शिक्षा में बराबरी हो । तभी ऐसी शर्त को उचित ठहराया जा सकता है वरना तो इससे एक साजिश की बू आती रहेगी जहाँ विकास से वंचित और पिछड़े तबके को और पीछे धकेलने की तैयारियाँ चल रही है।
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 80 प्रतिशत या इससे अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है क्योंकि इन राज्यों में 12वीं की परीक्षा का स्तर बहुत कठिन होता है और 12वीं के साथ 11वीं के प्रश्न भी पूछे जाते हैं। दूसरी तरफ सीबीएसई में थोक के भाव में 80 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाले छात्र मिल जाते हैं । वैसे भी जब देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग बोर्ड हैं और पाठ्यक्रम में भी आकाश और पाताल का अंतर है तब 80 प्रतिशत अंकों का ऐसा फरमान थोपना समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती है। इन बे सिर-पैर की बातों और अंकों की इस अँधी दौर में गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थि पीछे छूटते जाएँगे और उनकी प्रतिभा का कोई मोल नहीं रह जाएगा।
सरकार आईआईटी और इसी स्तर के सभी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण देती है मगर 80 प्रतिशत अंकों की बाध्यता का प्रभाव क्या उन लोगों पर नहीं पड़ेगा? लाखों विद्यार्थियों का आईआईटी में जाने का सपना चकनाचूर हो जाएगा। ऐसे विद्यार्थि जिनके पास अपनी कड़ी मेहनत के अलावा न तो सीबीएसई बोर्ड जैसी चमक-धमक होती है और ना ही उतनी सुविधाएँ। अगर विद्यार्थि इंजीनियरिंग, मेडिकल या अन्य पेशेवर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण में जाते हैं तो यह शिक्षा व्यवस्था की खामी का परिणाम है। आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की गुणवत्ता को बनाए रखना जरूरी है मगर साथ ही यह सुनिश्चित करना भी सरकार का ही दायित्व है कि इसमें प्रवेश पाने वाले समाज के सभी वर्गो से हों। किसी एक परीक्षा के आधार पर योग्यता को मापना उचित नहीं है।
अगर इस तरह का कोई काम करना भी है तो इसे निष्पक्ष रूप से तभी किया जा सकता है जब सभी राज्यों में एक ही बोर्ड हो उनके पाठ्यक्रम में समानता हो और शिक्षा में बराबरी हो । तभी ऐसी शर्त को उचित ठहराया जा सकता है वरना तो इससे एक साजिश की बू आती रहेगी जहाँ विकास से वंचित और पिछड़े तबके को और पीछे धकेलने की तैयारियाँ चल रही है।
बुधवार, 7 अक्तूबर 2009
एम्स बन गया है विदेशी मरीजों का डॉक्टर
अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान यानि ‘एम्स’ भारत में स्वास्थय जगत का सबसे प्रतिस्ठित नाम है। यहाँ डॉक्टरी की शिक्षा में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों पर सरकार लगभग 98 लाख से लेकर 170 लाख तक खर्च करती है लेकिन ये पैसा भारत से ज्यादा विदेशी मरीजों की सेवा में लग रहा है। एक सर्वे के अनुसार इस संस्थान से डॉक्टर बनकर निकलने वालों में से 54 प्रतिशत विदेशी मरीजों की नब्ज देखना पसंद करते हैं।
लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने यहाँ विद्यार्थियों पर हो रहे खर्च का ब्योरा तो दिया मगर यहाँ डॉक्टरों में बढ़ी विदेशी पसंद पर कुछ भी नही कहा। भारतीय छात्रों के प्रतिभा पलायन का ये कोई इकलौता उदाहरण नही है। चाहे वो इंजीनियरिंग के छात्र हों या डॉक्टरी के, भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा लेकर ये लोग विदेश का रूख करना पसंद करने लगे हैं। इस बात की दुहाई दी जाती है कि भारत में प्रतिभावान इंजीनियारों, वैज्ञानिकों, डाक्टरों आदि को उनकी योग्यता के अनुकूल काम करने की सुविधाएँ और स्थितियाँ नहीं मिलतीं, लिहाजा वे विदेशों की ओर रूख करने को बाध्य होते हैं। लेकिन ये सच्चाई का एक ही पहलु है, ये लोग अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं की खोज में विदेशी बनकर रहना पसंद करते हैं।
विश्व स्वास्थय संगठनके अनुसार 100 लोगों की जनसंख्या पर एक डॉक्टर होना चाहिए मगर हमारे देश में ये अनुपात दस हजार पर एक डॉक्टर का है। एक तो देश में अच्छे अस्पतालों के अभाव के कारण एम्स जैसे संस्थानों में मरीजों की इतनी मारामारी होती है कि दूर-दराज से आए लोगों को कई दिनों तक खुले आसमान को ही छत बनाना पड़ता है ऊपर से डॉक्टरों की कमी से इनपर दोहरी मार पड़ती है।
सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि सरकार जब यहाँ इतना पैसा बहाती है तो वो यहाँ की जनता के काम क्यों नहीं आता? इससे बड़ा सवाल ये है कि क्यों नहीं देश के तमाम भागों में ऐसे संस्थान बनाए जाते हैं ताकि इन संस्थानों पर इतना बोझ ही ना पड़े? इसके अलावा ऐसे मानदंड भी बनाए जाने की जरूरत है जिससे इन लोगों के पलायन पर रोक लगाई जा सके। जब देश का इतना पैसा इनकी पढ़ाई पर खर्च होता है तो इन्हें भी अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।
रविवार, 4 अक्तूबर 2009
कई खामियों की शिकार है आईआईएमसी लाइब्रेरी
एशिया भर में मॉस कम्युनिकेशन के लिए सबसे बड़ी लाइब्रेरी का तमगा हासिल करने वाली आईआईएमसी( इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉस कम्युनिकेशन) की लाइब्रेरी कई खामियों से ग्रसित है। अव्यवस्था का आलम यह है की यहाँ पिछले सात साल से लाईब्ररियन का पद ही खाली पड़ा है। वैसे तो संस्थान की लाइब्रेरी में और भी कई खामियां हैं लेकिन यह समस्या बहुत ही बड़ी है। ऐसा अगर चंद दिनों या महीनों से होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन सात साल तक एक प्रीमिअर संस्थान में( जिस संस्थान को सूचना और प्रसारण मंत्रालय चलाता हो उसमें) इस तरह की बात सामान्य नहीं कही जा सकती है। तिस पर संस्थान का प्रशासन कान में तेल डाले पड़ा हुआ है और संस्थान के सभी संकायों के शिक्षक इसपर बात करने से साफ़ मना कर देते हैं। उनका कहना है की इस मुद्दे पर हम कुछ नहीं कर सकते और ना ही कोई कमेन्ट देंगे। सारा काम प्रशासन के ज़िम्मे है। अब यह क्या माज़रा है की जिस संस्थान को सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा लाखों की फंडिंग मिलती हो और जिसके बारे में यह कहा जाता है की यहाँ हर छात्र पर 3-4 लाख रुपये(10 महीने में) का खर्चा आता है वहां एक अदद लाईब्ररियन की नियुक्ति नहीं हो रही है।
छात्रों से बात करने पर लाइब्रेरी की और कई खामियों के बारे में पता चलता है। मसलन, शेल्फ में रखी किताबों का अस्त-व्यस्त होना, हिंदी पत्रकारिता के लिए कम किताबें, साहित्य के किताबों की कमी, क्लास और लाइब्रेरी के खुलने-बंद होने के समय में टकराव आदि अनेक परेशानियाँ हैं। जब मैंने लाइब्रेरी के एक कर्मचारी राजबीर सिंह डागर से इन मुद्दों पर बातचीत की तो वो कई बातों को टाल गए। काफी सारी बातों के लिए उन्होंने छात्रों को हो ज़िम्मेवार ठहराया। कहा की वे ही किताबें इधर-उधर कर देते हैं। कुछ लोग ऐसा अपनी मनपसंद किताब को छुपाने के लिए भी करते हैं। कई शेल्फों पर स्टिक्कर नहीं लगे होने पर उन्होंने कहा की आगे से इसपर धयान दिया जायेगा।
छात्र कई दिनों से लाइब्रेरी से संबंधित मुद्दे को उठा रहे हैं लेकिन महीनों गुज़र जाने के बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है। संस्थान को चाहिए की वो अपने नाम और जर्नलिज्म के लिए नंबर एक होने के ब्रांड के साथ न्याय करते हुए लाइब्रेरी को जल्द से जल्द दुरुस्त करे।
छात्रों से बात करने पर लाइब्रेरी की और कई खामियों के बारे में पता चलता है। मसलन, शेल्फ में रखी किताबों का अस्त-व्यस्त होना, हिंदी पत्रकारिता के लिए कम किताबें, साहित्य के किताबों की कमी, क्लास और लाइब्रेरी के खुलने-बंद होने के समय में टकराव आदि अनेक परेशानियाँ हैं। जब मैंने लाइब्रेरी के एक कर्मचारी राजबीर सिंह डागर से इन मुद्दों पर बातचीत की तो वो कई बातों को टाल गए। काफी सारी बातों के लिए उन्होंने छात्रों को हो ज़िम्मेवार ठहराया। कहा की वे ही किताबें इधर-उधर कर देते हैं। कुछ लोग ऐसा अपनी मनपसंद किताब को छुपाने के लिए भी करते हैं। कई शेल्फों पर स्टिक्कर नहीं लगे होने पर उन्होंने कहा की आगे से इसपर धयान दिया जायेगा।
छात्र कई दिनों से लाइब्रेरी से संबंधित मुद्दे को उठा रहे हैं लेकिन महीनों गुज़र जाने के बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है। संस्थान को चाहिए की वो अपने नाम और जर्नलिज्म के लिए नंबर एक होने के ब्रांड के साथ न्याय करते हुए लाइब्रेरी को जल्द से जल्द दुरुस्त करे।
शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009
मीरा, दिनकर, ग़ालिब, बच्चन और बिस्मिल नज़र आए एक मंच पर!!
शशि भूषण : कल्पना कीजिए एक ऐसे मंच की जहाँ दिनकर, ग़ालिब, मीराबाई और बच्चन एक साथ अपनी कविताएँ प्रस्तुत करते दिखाई दें। सोच कर ये भले ही असंभव सा लगे मगर ऐसे ही माहौल को बिलकुल जीवंत बना दिया भारतीय जन संचार संस्थान के हिन्दी पत्रकारिता विभाग के छात्र-छात्राओं ने। इन लोगों ने अलग-अलग समय के इन विभूतियों को एक साथ एक ही मंच पर ला खड़ा किया।
मौका था संस्थान में हिन्दी पखवाड़ा के समापन समारोह का और कार्यक्रम का नाम था ‘कवि दरबार’। कार्यक्रम में हिन्दी पत्रकारिता के नौ छात्र-छात्राओं देश के महान कवियों की कविताओं को प्रस्तुत किया। हू-ब-हू इन महान कवियों जैसी वेश-भूषा और हाव भाव के साथ प्रस्तुत किए गए इस कार्यक्रम ने सभी लोगों को मंत्रमुग्ध सा कर दिया। वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति के चेहरे पर प्रशंसा के भाव नज़र आ रहे थे। रामधारि सिंह दिनकर, राम प्रसाद बिस्मिल, मिर्ज़ा ग़ालिब, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, विधापति, मीराबाई, फ़राज़ अहमद और माखनलाल चर्तुवेदी की कविताओं ने माहौल को कविमय बना दिया। सबसे ज़्यादा प्रभावित किया राम प्रसाद बिस्मिल बने अमिश कुमार रॉय ने । उनकी कविता की हर पंक्ति के साथ हॉल इन्क़लाब जिन्दाबाद के नारों से गूँज उठता था । दूसरी तरफ मधुशाला के प्याले ने लोगों को झूमने पर मजबूर कर दिया। राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों से फूट रहे ओज ने एक नए जोश का संचार किया।
आज की युवा पीढी में जहाँ कविताओं और कहानियों के प्रति रुझान कम होता जा रहा है वहीं हिन्दी पत्रकारिता के इन छात्रों ने ये साबित कर दिखाया की ऐसे युवा भी हैं जो ना हिन्दी को भूले हैं और ना इससे जुड़े लोगों को।
गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009
दया नहीं समाज में सम्मान चाहिए
एक साल पहले तक नागालैंड की अचुंग्ला भी उन मेधावी विधार्थियों में थी जो कड़ी मेहनत के बाद डॉक्टरी की शिक्षा में प्रवेश पाते हैं। दिल में ऊँचे ख़्वाब और डॉक्टर बन लोगों की सेवा करने के भाव से भरी थी अचुंगला। दिमागी बुखार(मेनिनजाइटिस) की गिरफ्त में आने से पहले वो भी समाज की मुख्यधारा से उसी तरह जुड़ी थी जैसे हम सब आज जुड़े हैं। इस बिमारी की वजह से उसकी सुनने की शक्ति जाती रही और वो भी उन लोगों की श्रेणी में आ गइ जिन्हें हमारा समाज मूक-बधिर कहकर बेगाना बना देता है।
ये कहानी सिर्फ अचुंग्ला की नहीं है ये कहानी है देश के उन तमाम लोगों की जो हमारे समाज में अलग-थलग सा महसूस करते हैं। वे हमसे थोड़ा अलग हैं। वे बोल और सुन नहीं सकते हैं। उनकी खुशी और गम चेहरे के भाव से पता चलती है। आजादी के 60 साल बाद भी हम उनकी शिक्षा का पुख्ता प्रबंध नहीं कर पाए, वह आज भी हमसे मदद की उम्मीद रखते हैं। उन्हें शिक्षा व शिक्षक का महत्व पता है। हम बात कर रहे हैं मूक-बधिर बच्चों की। हमारे शिक्षा सिस्टम में मिडिल के बाद मूक-बधिर बच्चों के लिए न तो शिक्षा संस्थान मिलते हैं और न ही 'स्पेशल टीचर।' इन लोगों को ना तो आम लोगों के साथ कॉलेजों में पढने-लिखने की सुविधा मिलती है और ना ही इन्हें सामान्य ज़िन्दगी नसीब हो पाती है, मगर निराशा के इस अंधकार में रोशनी की कुछ किरनें उजाला करने की कोशिश में लगी हैं।
दिल्ली के अरूना आसफ अली मार्ग पर स्थित ‘ऑल इन्डिया फेडरेशन ऑफ द डेफ’ ऐसी ही एक संस्था है। सन् 1955 से यह संस्था एक मिशन की तरह समाज से बहिष्कृत इन लोगों के हौसले बुलंद करने का काम कर रही है। इस संस्था के वरिष्ठ शिक्षक राजकुमार झा बताते हैं कि ये संस्था एक एन.जी.ओ है और भारत सरकार इसे फंड भी देती है। संस्था में इन बच्चों को उनकी रूचि के मुताबिक कई ऐसी कलाएँ सिखायी जाती हैं जिनसे वो खुद पर निर्भर हो सकें। फोटोग्राफी, डॉटा-इन्ट्री, सिलाई जैसी रोजगार देने वाली कलाओं में इन्हें ट्रेंड किया जाता है। यहाँ लड़के और लड़कियों के लिये छात्रावास की सुविधा भी दी जाती है। यहाँ प्रवेश की योग्यता आठवीं पास है और छात्रों से हर महीने 1130रूपये लिए जाते हैं जिसमें उन्हें रहने और खाने की सुविधा भी दी जाती है। राजकुमार झा बताते हैं कि इन बातों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण काम यहाँ किया जाता है वो है इन लोगों के मनोबल को बढाना। अचुंग्ला भी आज यहाँ फोटोग्राफी सीख रही है और अपने टूटे हुए मनोबल को वापस लाने की कोशिश कर रही है, मगर अलग होने का दर्द उसकी आँखों में साफ दिखता है। यहाँ जो बच्चे आते हैं उनके परिवार वाले उन्हें बोझ समझते हैं और बस पैसे देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इस बात की चिंता किसी को नहीं होती कि इनके अकेलेपन को कैसे दूर किया जाए।
बजाए इसके की इन लोगों को समाज कि मुख्यधारा से जोड़ा जाए हर कोई बस पैसे देकर छुटकारा पाना चाहता है, चाहे वो हमारी सरकार हो या फिर इन लोगों के परिवार। बसों में या और जगहों पर लोग इन्हें ऐस देखते हैं मानो ये किसी और दुनिया से आए हैं। क्या हमारी संवेदना इस हद तक मर चुकी है कि हम उन लोगों को अपने साथ भी नहीं खड़ा कर सकते जो अपने हर पल में संघर्ष की एक मिसाल कायम करते हैं? क्या इंसानियत और पैसा तराजु पर बराबर हो चुके हैं? अगर नहीं, तो गली बार जब अचुंग्ला जैसे लोगों से मिलें तो उन्हें दया नही सम्मान की दृष्टि से देखें।
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