शनिवार, 13 मार्च 2010

परजीवी


रात के सन्नाटे में
नींद खुल जाती है अचानक से
वे आवाजें फिर से मेरे कानों के
परदे से टकराने लगतीं हैं।
दूर कहीं जंगलों, सड़कों के फुटपाथों
असभ्यता के कथित गंदे नालों से उठतीं आवाजें
निष्प्राण,निरीह किन्तु दर्द से बिलबिलाती हुई
अधनंगें, अधपेटों की अधखुली आवाजें ।।

घबराकर बंद कर लेता हूँ मैं
घर के सभी दरवाजें और खिड़कियाँ
इसलिए नहीं कि मैं डरपोक हूँ
इसलिए क्योंकि मेरे 'होने पर' ही
प्रश्नचिन्ह उठाती हैं ये आवाजें
क्योंकि अभी भी मेरे टेबुल पर
पड़ा है सिगरेट का एक पूरा डिब्बा
जिसे भूखा नहीं पीता।
बताता है जो कि मेरा पेट
और घर दोनों भरें हैं
लेकिन खाली है मेरा ह्रदय
मै बस मांस का एक लोथ हूँ
एक जंगली कुत्ता
जो 'शेर' कि तरह सीधे शिकार नहीं
करता 'जानवरों' का
बस पलता रहता है उनके जूठन पर।

1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

अच्छी कविता है बस शिल्प पर कुछ काम करना होगा और पंक्तियों को अरेंज करना होग सही सही ।