गुरुवार, 4 जून 2009

संसदीय राजनीति में 'बैठा'

लोकतंत्र अन्य सभी शासन प्रणालियों से बेहतर क्यों है? क्या जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा किया गया शासन ही इसकी श्रेष्ठता का उत्कृष्ट उदाहरण है। हर जन के लिए ग्राह्यता और निश्चित अवधि पर जनता के मताधिकारों का प्रयोग इसकी सर्वोच्चता को निश्चित ही सबलता प्रदान करते हैं। अब प्रश्न यह है की यह ग्राह्यता किस रूप में हो और जनता अपने अधिकारों का प्रयोग कैसे करे? अन्य प्रणालियों की तरह लोकतंत्र के भी अपने अंतर्विरोध हैं, होने भी चाहिए, लेकिन सवाल यह है की उन अंतर्विरोधों की सीमा क्या हो? हर जन की भागीदारी सुनिश्चित करने के पीछे कहीं लोकतंत्र के बने-बनाए हुए मूल्यों और आदर्शों पर तो कुठाराघात नहीं हो रहा है इसकी भी जांच जरूरी है।


झारखण्ड के पलामू संसदीय सीट से आखिरकार नक्सली नेता कामेश्वर बैठा संसद पहुचने में कामयाब हो ही गए। गौरतलब है की बैठा इससे पहले गढ़वा, पलामू और कैमूर आदि ज़िलों के ज़ोनल कमांडर रह चुके हैं। अब नक्सालियों के बारे में थोड़ी सी जानकारी रखने वाला शख्स भी जानता होगा की ज़ोनल कमांडर क्या चीज़ होता है। बहरहाल, उन्होंने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर जेल से ही चुनाव लड़ा और विजयी हुए। इन महाशय पर सौ से भी ज्यादा आपराधिक मामले हैं जिनमें भारतीय दंड संहिता की ३०२, १२४, ३०७, ३२४, ३२६ जैसी धाराएँ शामिल हैं। पलामू और आसपास के इलाके में 'बैठा' किसी परिचय (कुख्यात) के मोहताज़ नहीं हैं। फिर भी उन्हें एक लाख अडसठ हज़ार के आसपास वोट मिले और राजद के अपने निकट प्रतिद्वंदी और पिछले बार के सांसद 'घूरन राम' को उन्होंने तेईस हज़ार वोटों से हराया।


कहते हैं हर जनादेश कुछ कहता है। तो फिर यह जनादेश क्या कहता है? क्या लोकतंत्र को अपराधियों के प्रति अपनी ग्राह्यता बढ़ानी चाहिए या उन्हें हाशिये पर डालकर सबक सिखाना चाहिए। इन प्रश्नों पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करना बहुत जरूरी है। इस बार कितने ही बाहुबली (मीडिया ने अपराधिक छवि वालों के कलंक को धोने के लिए अच्छा नाम दिया है) मैदान में थे लेकिन उनका हश्र क्या हुआ? जो नहीं लड़ सके उन्होंने घरवालों को लड़वाया लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। चाहे वो हीना शहाब हों, वीणा सिंह हों या फिर मुख्तार अंसारी, साधु यादव और फिर अबू आज़मी। परन्तु क्या कारण है कि इसी जनादेश से नक्सलियों का एक ज़ोनल कमांडर उभरकर संसदीय राजनीति में अपनी पहचान बना लेता है। तो क्या जनता के लिए अपराधी और नक्सली में अंतर है या की पलामू की जनता का जनादेश खंडित और मूर्खतापूर्ण है। या फिर की इतना सबकुछ देखने के बाद भी नक्सली विचारधारा का प्रभाव लोगों के ज़ेहन से अभी उतरा नहीं है।


कहने वाले कह सकते हैं कि इस बार का चुनाव विकास के मुद्दे पर केन्द्रित था और हो सकता है घूरन राम इसमें फिसड्डी साबित हुए हों सो जनता ने बैठा पर विश्वास जताया है। अब जिसने कितने लोगों का खून बहाया है, सरकारी सम्पतियों का विनाश किया है और कितने ही पुलिस वालों को असमय काल के गाल में पहुचाया है उससे विकास की उम्मीद करना क्या बेमानी नहीं है? या हो सकता है भविष्य इसका बढ़िया फैसला करे लेकिन जनता ने आखिकार कितने ही अपराधियों के कार्यों का लेखा-जोखा तो देखा ही है जिन्होंने सत्ता का उपयोग विकास के लिए कम लेकिन अपनी दबंगता को चमकाने में ज्यादा किया है। वैसे भी बीजापुर, दंतेवाडा के नक्सली नेता 'रेंगम' यह बात कह ही चुके हैं कि हमारी सीधी लडाई सत्ता से है और सत्ता, सरकार में परिवर्तन ही हमारा मुख्य उद्देश्य है। तो क्या बैठा भी अपनी समानांतर सत्ता चलाएंगे? या फिर जैसे अमेरिका ने तालिबान को 'बढ़िया' और 'ख़राब' की श्रेणी में बांटा है वैसे हमें भी 'बढ़िया' और 'ख़राब' नक्सली का विभाजन करना होगा।


अब इसी लोकतंत्र और चुनावी राजनीति के दूसरे पहलु पर गौर करते हैं। जिसे दो साल या अधिक कि सज़ा नहीं हुई हों वह निर्विरोध चुनाव लड़ सकता है, संसदीय राजनीति में अपना सर ऊँचा कर शेर कि तरह दहाड़ सकता है लेकिन वहीँ दूसरी तरफ 'विनायक सेन' को दो साल जेल में सिर्फ इसलिए रखा जाता है क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर नक्सलियों कि मदद की। इसे भी छत्तीसगढ़ सरकार सिद्ध नहीं कर पाई। अब यह लोकतंत्र ही बताए कि एक डॉक्टर उस मरीज़ कि सेवा करे या नहीं जो अपराधी या नक्सली है। मारने वाला दोषी होता है या बचाने वाला? वहीँ दूसरी तरफ 'सलवा जुडूम' के नाम पर सैकड़ों आदिवासी मार दिए जाते हैं, विदर्भ के जिन लोगों का 'टाडा' रुपी घाव अभी सूखा भी नहीं हो वहां नक्सली और अपराधी चुनाव लड़ते हैं, संसद पहुचते हैं और सत्ता कि मलाई चाभते हैं। सरकार छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बंगाल, बिहार, झारखण्ड आदि कई जगहों पर लाल झंडे का प्रकोप देख चुकी है और देख रही है। विचारधारा का अंत और समानांतर सरकार चलाने कि मंशा अब बच्चा-बच्चा जानता है। नेपाल का उदाहरण भी सामने ही है। ऐसे में लाल झंडे के साथ क्या किया जाए इसपर सोचने का वक़्त आ चुका है।


'बैठा' कि जीत के बाद 'अर्जुन मुंडा' ने कहा कि "इस तरह के उदाहरण लोकतंत्र को मजबूत करेंगे। अब तो इसका सीधा मतलब यह हुआ कि आप चाहे जितने कत्ल करें, दहशत फैलाएं लोकतंत्र कि संसदीय प्रणाली में आने से आपके सारे पाप धुल जायेंगे। तो क्या लोकतंत्र कि ग्राह्यता को बढाने, उसे मजबूत करने के लिए सैकड़ों जानों कि बलिदानी जरूरी है या कि दाउद इब्राहीम भी आकर चुनाव लड़ ले और गलती से जीत जाए तो इससे उसके सारे पाप धुल जायेंगे और लोकतंत्र मजबूत होगा। उन्होंने इसकी तुलना नेपाली व्यवस्था से कि है लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि नेपाल के माओवादियों और यहाँ के नक्सलियों कि लड़ाई में बहुत अंतर है। यह इतिहास रहा है कि अपने किए पापों को छिपाने, उनकी करनी कि सज़ा पाने से बचने के लिए राजनीति एक महफूज़ जगह रही है। यहाँ कोई आपको जल्दी हाथ नहीं लगा सकता। अब इस लोकतंत्र और संसदीय राजनीति कि यह विडम्बना घातक रूप ले चुकी है जिसे सिर्फ जनता के भरोसे छोड़ना उचित नहीं है।


मै 'बैठा' या इस तरह के अन्य किसी व्यक्ति के लोकतंत्र कि मुख्यधारा में शामिल होने का विरोधी नहीं हूँ, और न ही संसदीय राजनीति में उनकी कार्यकुशलता को लेकर भयभीत, लेकिन मेरा मानना यह है कि इस तरह के सभी लोगों को उनके किए कि पूरी सज़ा मिले इसके बाद ही उन्हें चुनाव लड़ने का अधिकार हो। लोकतंत्र कि ग्राह्यता को बढाने के कुछ पैमाने होने चाहिए तभी यह सच्चे रूप में जनता का शासन बना रह पाएगा नहीं तो हमारे सामने साम्यवादियों का ज्वलंत उदाहरण है ही।

सोमवार, 1 जून 2009

प्रयोग या परिणाम?

मीरा कुमार को लोकसभा का अध्यक्ष बनाकर भारत के संसदीय इतिहास में एक नई इबारत लिख दी गई है। १५वीं लोकसभा, २००९ का चुनाव जहाँ कांग्रेस के लिए एक नया उत्थान सन्देश लेकर आया वहीँ संसदीय राजनीति का चेहरा भी प्रकाशवान हुआ है। मीरा कुमार के रूप में पहली बार किसी महिला को लोकसभा अध्यक्ष का पद सौंपा गया है। पिछले लोकसभा के अध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी का कार्यकाल अंतिम दिनों में जिस तरह बीता, उसको भुलाने और उसपर मरहम लगाने में शायद यह प्रसंग कुछ काम करे। इंदिरा गाँधी, प्रतिभा पाटिल और किरण बेदी के बाद एक बार फिर नारी सशक्तिकरण का उभार दिखा है। यधपि किरण बेदी का संसदीय राजनीति से जुडाव नहीं था लेकिन उनको इस लीग में शामिल करने का मेरा अपना मत है।

राजनीति और सत्ता प्रतिष्ठान में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने को लेकर काफी बहसें हो चुकी हैं। १५ वीं लोकसभा का चुनाव इस मामले में भी ऐतिहासिक साबित हुआ कि संसदीय राजनीति में महिलाओं कि संख्या आखिकार ५० को पार कर गयी। इस बार कुल ६१ महिलाएं संसद में होंगी। तो क्या सचमुच भविष्य में, संसदीय राजनीति में इनकी प्रभुत्व में इज़ाफा होगा? क्या राजनीतिक पार्टियाँ और जनता इस ग्राह्यता के लिए तैयार हैं? इसी सिक्के के दूसरे पहलु पर गौर करते हैं। इस बार कुल चार सौ उनसठ महिलाएं उम्मीदवार के रूप में खड़ी हुई थीं जिसमे सिर्फ ६१ को ही सफलता मिली। यह आंकड़ा थोड़ी देर को सोचने पर मजबूर भी करता है कि क्या कारण है कि जनता ने बाकी तीन सौ अनठानवे को नकार दिया? क्यों इतने कम स्तर पर सफलता मिली। तो क्या हमें मान कर चलना चाहिए कि लोकतंत्र इस परिवर्तन के लिए इतनी जल्दी तैयार नहीं है? या फिर की आंकड़ें ही सबकुछ नहीं बताते.

एक अनुमान के मुताबिक ग्राम समिति से लेकर लोकसभा तक कुल अड़तीस लाख उम्मीदवार हैं लेकिन इनमें महिलाओं की संख्या लाख दो लाख से ज्यादा नहीं है। इनकी भागीदारी का प्रतिशत हुआ महज़ तीन के आस-पास। संसदीय राजनीति की बात करें तो ५४३ में ६१ उम्मीदवारों का प्रतिशत ११ के आस-पास है। पहले वाले के मुकाबले यह ज्यादा जरूर है लेकिन संतोषजनक नहीं। यह भी उसी लोकतंत्र (बराबरी का?) की विडम्बना है जहाँ बीस बड़े उद्योग घराने देश की जीडीपी के बीस प्रतिशत भाग पर कुंडली मारे बैठें हैं और चौरासी करोड़ लोगों को बीस रुपया प्रतिदिन भी नहीं मिलता है। महिला आरक्षण विधेयक को ही देखिए जो देवगोड़ा के समय से ही लटका पड़ा है। हमेशा इसे या तो पिछले दरवाजे (राज्यसभा) से लाया जाता है या संसद सत्र के ख़त्म होने के समय पर। अब ऐसे में मीरा कुमार का उदाहरण नारी सशक्तिकरण के रूप में कितना कारगर सिद्ध होगा यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।

लोकतंत्र अन्य सभी शासन प्रणालियों से बेहतर है क्योंकि यह प्रयोगों का घर है। ये प्रयोग इसे जड़ होने से बचाते हैं और इसकी बनाई हुई आस्थाओं को मजबूत करतें हैं। मीरा कुमार का उदाहरण भी इस सन्दर्भ में प्रासंगिक है। परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धर्मवाद और क्षेत्रवाद के बाद यह एक और सफल प्रयोग है। वैसा ही प्रयोग जैसा मुस्लिमों के साथ होता रहा है। जगजीवन बाबू की बेटी और दलित होना उनके लिए ज्यादा अनुकूल हुआ। बहुजन के लिए कांग्रेस का यह एक बड़ा सन्देश भी है और महिलाओं के लिए तो है ही। वैसे भी संसदीय राजनीति की यह पहचान रही है की परिवर्तन के लिए कुछ ऐसे तत्त्व जरूर होने चाहिए जो जनता के जेहन से जल्दी विस्मृत नहीं हों।

मीरा कुमार और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को लेकर कांग्रेस का दृष्टिकोण चाहे जो भी हो लेकिन पार्टी ने संसदीय राजनीति में मील का पत्थर तो स्थापित किया ही है। अब पार्टी को चाहिए की वह महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाकर एक और मील का पत्थर स्थापित करे और लोकतंत्र को शुभ संकेत दे। इस बार लालू और मुलायम का दबाव भी नहीं है। इन्होनें तो मंडल की मलाई खूब खाई लेकिन बराबरी की बात पर फटाक से उल्टी कर देते हैं। खैर! जनता ने जिस भाव से प्रेरित होकर जनादेश दिया है उसका सकारात्मक उत्तर देना कांग्रेस का कर्तव्य होना चाहिए। मीरा कुमार के बहाने एक शुभ संकेत तो मिल ही चुका है, कांग्रेस को कोशिश करनी चाहिए की मीरा कुमार एक प्रयोग मात्र बनकर न रह जाएँ बल्कि उनकी तरह और परिणाम सामने आएं। प्रयोग परिणाम की सीढ़ी होनी चाहिए एक छलावा नहीं।